साहित्य
'दो देश, दो कहानियां' - वातायन और कैनेडा की हिंदी राइटर्स गिल्ड का समवेत आयोजन
28 Aug, 2022 05:10 PM IST | WEWITNESSNEWS.COM
लन्दन : दिनांक २८-०८-२०२२ : दूसरे वर्ष में प्रवेश कर चुके तथा साहित्यिक पिच पर संगोष्ठियों की शतक लगा चुके 'वातायन' मंच के इंद्रधनुषीय कार्यक्रमों में नित नए-नए प्रयोग किए...
भीतर-भीतर जंग --सत्यवान 'सौरभ' के दोहे
26 Aug, 2022 11:46 PM IST | WEWITNESSNEWS.COM
उनका क्या विश्वास अब, उनसे क्या हो बात ।
‘सौरभ’ अपने खून से, कर बैठे जो घात ।।
गलती है ये खून की, या संस्कारी भूल ।
अपने काँटों से लगे, और पराये...
सत्यवान "सौरभ" के दोहे
24 Aug, 2022 10:13 PM IST | WEWITNESSNEWS.COM
मन रहता व्याकुल सदा, पाने माँ का प्यार ।
लिखी मात की पातियाँ, बाँचू बार हज़ार ।।
अंतर्मन गोकुल हुआ, जाना जिसने प्यार ।
इस अमृत के पान से, रहते नहीं विकार ।।
बना...
रावण उदास है (उपन्यास अंश)--डा. मनोज मोक्षेंद्र
22 Aug, 2022 11:28 PM IST | WEWITNESSNEWS.COM
अध्याय—एक
कोई पैंतीस वर्ष पहले मैं कितना बड़ा रहा हूंगा, इस बात का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। यानी मुश्किल से बारह साल का था; पर, उस उम्र का...
राजीव बांगिया की शेरो-शायरी
21 Aug, 2022 11:23 PM IST | WEWITNESSNEWS.COM
है ये किस्मत अपनी-अपनी, कोई गिला भी क्या करना
किसी के पास वक्त नहीं और किसी का वक्त कटता नहीं
पूरी कायनात में तेरी बेरूखी का अजीब आलम देखा है मैंने
कहीं रोटी...
चुन लाए वो पत्थर--ग़ज़ल--डा . मनोज मोक्षेंद्र
21 Aug, 2022 10:59 PM IST | WEWITNESSNEWS.COM
झरनों ने तराशे जिन्हें चुन लाए वो पत्थर
मंदिर में ज़ब्त हो गए भगवान बन पत्थर
हर ईंट में दिल डालकर कि घर धड़क उट्ठे
मैं रह गया बेजान-सा तूफ़ान में पत्थर
जिस शायरी...
'वातायन संगोष्ठी-११५' का आयोजन-कोंकणी भाषा के ख्यातिलब्ध कथाकार दामोदर मावजी पर चर्चा
21 Aug, 2022 03:25 PM IST | WEWITNESSNEWS.COM
लन्दन, २१-०८-२०२२ : दिनांक २० अगस्त २०२२ को सुप्रसिद्ध प्रवासी लेखिका दिव्या माथुर के संयोजन में 'वातायन संगोष्ठी-११५' का आयोजन किया गया। संगोष्ठियों की इस कड़ी में कोंकणी भाषा के...
ग़ज़ल--डॉ . राजीव श्रीवास्तव
20 Aug, 2022 02:32 PM IST | WEWITNESSNEWS.COM
ग़ज़ल
ज़िंदगी के कुछ सुभीते बन रहे हैं,
भूख से लड़ने के टीके बन रहे हैं।
पत्थरों में दिल उगाये जा रहे हैं,
कारखानों में फ़रिश्ते बन रहे हैं।
भेड़ियों की गंध हर उस माँद...
सड़क की छाती पर कोलतार (लघुकथा)- सुशांत सुप्रिय
19 Aug, 2022 10:36 PM IST | WEWITNESSNEWS.COM
सड़क की छाती पर कोलतार बिछा हुआ है । उस पर मज़दूरों के जत्थे की पदचाप है । इस दृश्य के उस पार उनके दुख-दर्द हैं । उनकी मायूसियाँ हैं । उनकी हताशाएँ हैं । सड़क पर साइकिल की...
संत-गति (कहानी) --डॉ. मनोज मोक्षेंद्र
18 Aug, 2022 11:18 PM IST | WEWITNESSNEWS.COM
आजकल दीन-दुनिया की किस्मत के सितारे बुलंद करने वाले बाबा घटानन्द के सितारे डूबते-से नज़र आ रहे हैं। उनकी जीवन-नइया संसार के भव-सागर के बीचो-बीच हिचकोले खा रही है। घटनाक्रम...
बलिदान (कहानी) --- सुशान्त सुप्रिय
18 Aug, 2022 10:58 PM IST | WEWITNESSNEWS.COM
मेरे परदादा बड़े ज़मींदार थे । वे कई गाँवों के स्वामी थे ।उन्होंने कई मंदिर बनवाए थे।कई कुएँ और तालाब खुदवाए थे । कई-कई कोस तक उनका राज चलता था ।वे अपनी वीरता के लिए भी विख्यात थे । एक बार ' लाट साहब ' के साथ जब वे घने जंगल में शिकार पर गए थे तब एक खूँखार नरभक्षी बाघ ने पीछे से ' लाट साहब ' पर अचानक हमला कर दिया था ।तब परदादा जी ने अकेले ही बाघ से मल्ल-युद्ध किया । हालाँकि इस दौरान वे घायल भी हो गए पर इसकी परवाह न करते हुए उन्होंने बाघ के मुँह में अपने हाथ डाल कर उसका जबड़ा फाड़ दिया था और उस बाघ को मार डाला था । परदादाजी की वीरता से अंग्रेज़ बहादुर बहुत ख़ुश हुआ था । अपनी जान बचाने के एवज़ में ' लाट साहब ' ने उन्हें ' रायबहादुर ' की उपाधि भी दी थी ।
हालाँकि आज जो सच्ची घटना मैं आपको बताने जा रहा हूँ उसका सीधे तौर पर इस सबसे कुछ लेना-देना नहीं है । हमारे गाँव चैनपुर के बगल में एक और गाँव था--- धरहरवा । वहाँ साल में एक बार बहुत बड़ा मेला लगता था । हमारे गाँव और आस-पास के सभी गाँवों के लोग उस मेले की प्रतीक्षा साल भर करते थे । मेले वाले दिन सब लोग नहा-धो कर तैयार हो जाते और जल-पान करके मेला देखने निकल पड़ते । हमारे गाँव में से जो कोई मेला देखने नहीं जा पाता उसे बहुत बदक़िस्मत माना जाता । हमारे गाँव चैनपुर और धरहरवा गाँव के बीच भैरवी नदी बहती थी ।साल भर तो वह रिबन जैसी एक पतली धारा भर होती थी । पर बारिश के मौसम में कभी-कभी यह नदी प्रचण्ड रूप धारण कर लेती थी । तब कई छोटी-छोटी सहायक नदियों और नालों का पानी भी इसमें आ मिलता था । बाढ़ के ऐसे मौसम में भैरवी नदी सब कुछ निगल जाने को आतुर रहती थी । यह कहानी भैरवी नदी में आई ऐसी ही भयावह बाढ़ से जुड़ी है ।
यह बात तब की है जब मेरी परदादी के पेट में मेरे दादाजी थे । उस बार जब धरहरवा गाँव में मेला लगने वाला था तो मेरी परदादी ने परदादाजी से कहा कि इस बार वह भी मेला देखने जाएँगी । यह सुन कर परदादा जी मुश्किल में फँस गए ।
वैसे तो कई-कई कोस तक किसी भी बात के लिए उनका हुक्म अंतिम शब्द माना जाता था पर वे मेरी परदादी से बहुत प्यार करते थे । उन्होंने परदादी जी को मनाना चाहा कि ऐसी अवस्था में उनका मेला देखने जाना उचित नहीं होगा । पर परदादी थीं कि टस-से-मस नहीं हुईं । परदादाजी प्रकाण्ड विद्वान् भी थे । उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था । किन्तु उनकी सारी विद्वत्ता परदादी जी के आगे धरी-की-धरी रह गई । वे किसी भी भाषा में परदादी जी को नहीं मना पाए । परदादी जी की देखा-देखी या शायद उनकी शह पर घर-परिवार की सारी औरतों ने मेला देखने जाने की ज़िद ठान ली । हार कर परदादाजी और घर के अन्य पुरुषों को घर की औरतों की बात माननी पड़ी ।
पुराना ज़माना था । ज़मींदार साहब की घर की औरतों के लिए पालकी वाले बुलाए गए । भैरवी नदी के इस किनारे पर एक बड़ी-सी नाव का बंदोबस्त किया गया । लेकिन उस सुबह नदी में अचानक कहीं से बह कर बहुत ज़्यादा पानी आ गया था । नदी चौड़ी, गहरी और तेज़ हो गई थी । बाढ़ जैसी स्थिति की वजह से उसने ख़तरनाक रूप ले लिया था । पर मेला भी साल में एक ही बार लगता था । अंत में घर के सब लोग , कुछ नौकर-नौकरानियाँ , पालकियाँ और पालकी वाले भी उस डगमगाती नाव पर सवार हुए । राम-राम करते हुए किसी तरह नदी पार की गई । इस तरह नदी के उस पार उतर कर सब लोग धरहरवा गाँव में मेला देखने पहुँचे ।
मेला पूरे शराब पर था । चारो ओर धूम मची हुई थी । तरह-तरह के खेल-तमाशे थे । नट और नटनियों के ऐसे करतब थे कि आदमी दाँतों तले उँगली दबा ले ।
एक ओर गाय , भैंसें , और बैल बिक रहे थे । दूसरी ओर हाथी और घोड़े बेचे और खरीदेजा रहे थे । दूसरे इलाक़ों के ज़मींदार लोग भी मेले में पहुँचे हुए थे । कहीं ढाके का मलमल बिक रहा था तो कहीं कन्नौज का इत्र बेचा जा रहा था । कहीं बरेली का सुरमा बिक रहा था तो कहीं फ़िरोज़ाबाद की चूड़ियाँ बिक रही थीं । ख़ूब रौनक़ लगी हुई थी ।
सूरज जब पश्चिमी क्षितिज की ओर खिसकने लगा तो मेला भी उठने लगा । दुकानदार अँधेरा होने से पहले सामान समेट कर वापस लौट जाना चाहते थे । परदादाजी ने ख़ास अरबी घोड़ा ख़रीदा । घर-परिवार की औरतों ने भी अपने-अपने मन का बहुत कुछ ख़रीदा । परदादाजी तीन भाई थे । वे सबसे बड़े थे । उनके बाद मँझले परदादाजी थे । फिर छोटे परदादाजी थे । शाम ढलने लगी थी । सब लोग उस बड़ी-सी नाव पर सवार हो गए । नदी का पानी पूरे उफान पर था । हालात और ख़राब हो गए थे। दूर-दूर तक नदी का दूसरा किनारा नज़र नहीं आ रहा था । मल्लाहों ने परदादाजी से विनती की कि इस बाढ़ में नाव से नदी पार करना बड़े जोख़िम का काम था । पर परदादाजी के हुक्म के आगे उनकी क्या बिसात थी । सब लोग उस डगमगाती नाव में सवार हो गए । परदादाजी ने अपने अरबी घोड़े को भी नाव पर चढ़ा दिया । घर-परिवार की सभी औरतें, नौकर-चाकर , पालकियाँ और पालकी वाले--सब नाव पर आ गए ।
नदी किसी राक्षसी की तरह मुँह बाएँ हुए थी । उफनती नदी में वह नाव किसी खिलौने-सी डगमगाती जा रही थी । नदी के बीच में पहुँच कर नाव एक ओर झुक कर डूबने लगी । औरतों ने रोना-चीख़ना शुरू कर दिया । मल्लाहों ने चिल्ला कर परदादाजी से कहा कि नाव पर बहुत ज़्यादा भार था । उन्होंने कहा कि नाव को हल्का करने के लिए कुछ सामान नदी में फेंकना पड़ेगा ।
परदादाजी ने सामान से भरे कुछ बोरे नदी में फिंकवा दिए । नाव कुछ देर के लिए सम्भली पर बाढ़ के पानी के प्रचण्ड वेग से एक बार फिर संतुलन खो कर एक ओर झुकने लगी । फिर से चीख़-पुकार मच गई । अब और सामान नदी में फेंक दिया गया । पर नाव थी कि सम्भलने का नाम ही नहीं ले रही थी और एक ओर झुकती जा रही थी । मल्लाह लगातार भार हल्का करने के लिए चिल्ला रहे थे ।
आख़िर परदादाजी ने दिल पर पत्थर रख कर अपने अरबी घोड़े को उफनती धाराओं के हवाले कर दिया । उन्हें देख कर लगा जैसे वे अपने जिगर का टुकड़ा क्रुद्ध भैरवी मैया के हवाले कर रहे हों । नाव ने फिर कुछ दूरी तय की । लेकिन कुछ ही देर बाद वह दोबारा भयानक हिचकोले खाने लगी । नाव को चारों ओर से इतने झटके लग रहे थे कि नाव में बैठी परदादीजी की तबीयत ख़राब होने लगी थी । जब नाव ज़्यादा झुकने लगी तो मल्लाह एक बार फिर चिल्लाने लगे । परदादाजी के मना करने के बावजूद अबकी बार कुछ नौकर-चाकर और पालकी वाले जिन्हें तैरना आता था, नदी में कूद गए । नाव उफनती धारा में तिनके-सी बहती चली जा रही थी । मल्लाह नियंत्रण खोते जा रहे थे ।
अंत में नाव में केवल चार मल्लाह, घर-परिवार के सदस्य और कुछ नौकरानियाँ ही बचे रह गए । लग रहा था जैसे उस दिन सभी उसी नदी में जल-समाधि लेने वाले थे । सब की नसों में प्रलय का शोर था । शिराओंं में भँवर बन रहे थे । साँसें चक्रवात में बदल गई थीं । परदादाजी को कुछ समझ नहीं आ रहा था । उनकी बुद्धि के सूर्य को जैसे ग्रहण लग गया था । मल्लाह एक बार फिर चिल्लाने लगे थे ।
परदादाजी , मँझले परदादाजी और छोटे परदादाजी -- तीनों अच्छे तैराक थे । लेकिन बाढ़ से उफनती सब कुछ लील लेने वाली प्रलयंकारी नदी में तैरना किसी शांत तालाब में तैरने से बिलकुल उलट था । एक बार फिर फ़ैसले की घड़ी आ पहुँची । किसी ने सलाह दी कि नौकरानियाें को नदी में धकेल दिया जाए । लेकिन तीनों परदादाओं ने यह सलाह देने वाले को ही डाँट दिया । बल्कि पहले छोटे परदादा , फिर मँझले परदादा परदादाजी से गले लगे और उनके लाख रोकने के बावजूद दोनों उस बाढ़ से हहराती , उफनती नदी में कूद गए । घर की औरतें रोने-बिलखने लगीं । लेकिन नाव थोड़ी सीधी हो गई ।
अब दूसरा किनारा दिखने लगा था । लगा जैसे नाव किसी तरह उस पार पहुँच जाएगी । तभी बाढ़ के पानी का समूचा वेग लिए कुछ तेज लहरें आईं और नाव को बुरी तरह झकझोरने लगीं । उस झटके से चार में से दो मल्लाह उफनती नदी में गिर कर बह गए । नाव अब बुरी तरह डगमगा रही थी । दोनों मल्लाह पूरी कोशिश कर रहे थे पर नाव एक ओर झुक कर बेक़ाबू हुई जा रही थी । दोनों मल्लाह फिर चिल्लाने लगे थे । किनारा अब थोड़ी ही दूर था लेकिन नाव लगातार एक ओर झुकती चली जा रही थी । वह किसी भी पल पलट कर डूब सकती थी ।
औरतें एक बार फिर डर कर चीख़ने लगी थीं । दोनों मल्लाह भी चिल्ला रहे थे । और उसी पल परदादाजी ने आकाश की ओर देख कर शायद कुल-देवता को प्रणाम किया और नदी की उफनती धारा में कूद गए । औरतें एक बार फिर विलाप करने लगीं ।
परदादाजी के नदी में कूदते ही एक ओर लगभग पूरी झुक गई नाव कुछ सीधी हो गई । औरतों के विलाप और भैरवी नदी की उफनती धारा के शोर के बीच ही दोनों मल्लाह किसी तरह उस नाव को किनारे पर ले आए ।
परदादाजी किनारे कभी नहीं पहुँच पाए । मँझले परदादा और छोटे परदादा का भी कुछ पता नहीं चला । उस शाम नाव से नदी में कूदने वाले हर आदमी को भैरवी नदी की उफनती धाराओं ने साबुत निगल लिया ।
तीनों परदादाओं और अन्य सभी का बलिदान व्यर्थ नहीं गया । बाढ़ और मातम के बीच उसी रात परदादी ने दादाजी को जन्म दिया , वर्षों बाद जिन्हें आज़ाद भारत की सरकार ने स्वाधीनता-संग्राम में उनके योगदान के लिए शाॅल और ताम्र-पत्र दे कर सम्मानित किया ।
लेकिन इस बलिदान से जुड़ी असली बात तो मैं आपको बताना भूल ही गया । बाढ़ के उस क़हर की त्रासद घटना के बाद से आज तक , पिछले नब्बे सालों में भैरवी नदी में फिर कभी कोई डूब कर नहीं मरा है । इलाक़े के लोगों का कहना है कि हर डूबते हुए आदमी को बचाने के लिए नदी के गर्भ से कई जोड़ी हाथ निकल आते हैं जो हर डूबते हुए आदमी को सुरक्षित किनारे तक पहुँचा जाते हैं । इलाक़े के लोगों का मानना है कि परदादाजी, मँझले परदादाजी , छोटे परदादाजी और नौकरों-चाकरों की रूहें आज भी उस नदी में डूब रहे हर आदमी की हिफाज़त करती हैं ।
--------------०--------------
प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014
( उ. प्र. )
मो: 08512070086
ई-मेल: sushant1968@gmail.com
बचपन के वो गीत/ मुरझाया है स्नेह--सत्यवान सौरभ के दोहे
18 Aug, 2022 10:41 PM IST | WEWITNESSNEWS.COM
-एक-
स्याही-कलम-दवात से, सजने थे जो हाथ ।
कूड़ा-करकट बीनते, नाप रहे फुटपाथ ।।
●●●
बैठे-बैठे जब कभी, आता बचपन याद ।
मन चंचल करने लगे, परियों से संवाद ।।
●●●
मुझको भाते आज भी, बचपन के...
उड़े तिरंगा बीच नभ--- डॉo सत्यवान 'सौरभ'
15 Aug, 2022 01:44 PM IST | WEWITNESSNEWS.COM
आज तिरंगा शान है, आन, बान, सम्मान।
रखने ऊँचा यूँ इसे, हुए बहुत बलिदान।।
नहीं तिरंगा झुक सके, नित करना संधान।
इसकी रक्षा के लिए, करना है बलिदान।।
देश प्रेम वो प्रेम है, खींचे...
दाग़ (कहानी)- सुशांत सुप्रिय
15 Aug, 2022 12:05 AM IST | WEWITNESSNEWS.COM
रात से ठीक पहले ढलती हुई शाम में एक समय ऐसा आता है जब आकाश कुछ कहना चाहता है , धरती कुछ सुनना चाहती है । जब दिन की अंतिम रोशनी रात के पहले अँधेरे से मिलती है । यह कुछ-कुछ वैसा ही समय था । कनाॅट प्लेस में दुकानों की बत्तियाँ जगमगाने लगी थीं । दिन बड़ा गरम रहा था । शाम में ठंडी बीयर पीने के इरादे से मैं ' वोल्गा ' रेस्त्रां में पहुँचा । कोनेवाली टेबल पर एक अधेड़ उम्र के सरदारजी अकेले बीयर का मज़ा ले रहे थे । न जाने क्यों मेरे क़दम अपने-आप ही उनकी ओर मुड़ गए ।
" क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ ? " मैंने ख़ुद को सरदारजी से कहते सुना ।
" बैठो बादशाहो ! बीयर-शीयर लो । " सरदारजी दरियादिली से बोले ।
" शुक्रिया जी ।" मैंने बैठते हुए कहा ।
बातचीत के दौरान पता चला कि क़रोल बाग़ में सरदारजी का हौज़री का बिज़नेस था । जनकपुरी में कोठी थी । वे शादी-शुदा थे । उनके बच्चे थे । उनके पास वाहेगुरु का दिया सब कुछ था । पर इतना सब होते हुए भी मुझे उनके चेहरे पर एक खोएपन का भाव दिखा । जैसे उनके जीवन में कहीं किसी चीज़ की कमी हो । शायद उन्हें किसी बात की चिंता थी । या कोई और चीज़ थी जो उन्हें भीतर ही भीतर खाए जा रही थी ।
बातचीत के दौरान ही सरदारजी ने तीन-चार बार मुझ से पूछ लिया , " मेरे
कपड़ों पर कोई दाग़-वाग तो नहीं लगा जी ? "
मुझे यह बात कुछ अजीब लगी । उनके कपड़े बिल्कुल साफ़-सुथरे थे । मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि उनके कपड़ों पर कहीं कोई दाग़ नहीं था । हालाँकि उनके दाएँ हाथ की कलाई के ऊपर कटने का एक लम्बा निशान था । जैसे वहाँ कोई धारदार चाक़ू या छुरा लगा हो ।
फिर मैं सरदारजी को अपने बारे में बताने लगा ।
अचानक उन्होंने फिर पूछा -- " मेरे कपड़ों पर कोई दाग़-वाग तो नहीं लगा
जी ? " उनके स्वर में उत्तेजना थी । जैसे उनके भीतर कहीं काँच-सा कुछ चटक गया हो जिसकी नुकीली किरचें उन्हें चुभ रही हों ।
मैंने हैरान हो कर कहा -- " सरदारजी, आप निश्चिंत रहो । आपके कपड़े बिल्कुल साफ़-सुथरे हैं । कहीं कोई दाग़ नहीं लगा । हालाँकि मैं यह ज़रूर जानना चाहूँगा कि आपके दाएँ हाथ की कलाई के ऊपर यह लम्बा-सा दाग़ कैसा है ? "
यह सुनकर सरदारजी का चेहरा अचानक पीले पत्ते-सा ज़र्द हो गया । जैसे मैंने उनकी किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो ।
कुछ देर हम दोनों चुपचाप बैठे अपनी-अपनी बीयर पीते रहे । मुझे लगा जैसे मैंने उनसे उनके चोट के दाग़ के बारे में पूछ कर उनका कोई पुराना ज़ख़्म फिर से हरा कर दिया हो । उनकी चुप्पी की वजह से मुझे अपनी ग़लती का अहसास और भी शिद्दत से हो रहा था । कई बार आप अनजाने में ही किसी के व्यक्तिगत जीवन में झाँक कर देखने की भूल कर बैठते हैं हालाँकि इसके जड़ में केवल उत्सुकता ही होती है । पर भूल से आप किसी के जीवन के उस दरवाज़े पर दस्तक दे देते हैं जो बरसों से बंद पड़ा होता है । जिसके पीछे कई राज़ दफ़्न होते हैं । जिसका एक गोपनीय इतिहास होता है ।
" मैंने आज तक इस ज़ख़्म के दाग़ की कहानी किसी को नहीं बताई । अपने बीवी-बच्चों को भी नहीं । पर न जाने क्यों आज आप को सब कुछ बताने का दिल कर रहा है । " सरदारजी फिर से संयत हो गए थे । उन्होंने आगे कहना शुरू किया --
" मेरा नाम जसबीर है । बात तब की है जब पंजाब में ख़ालिस्तान का मूवमेंट ज़ोरों पर था । हालाँकि सरकार ने आॅपरेशन ब्लू-स्टार में बहुत से मिलिटैंटों को मार दिया था पर ख़ालिस्तान का आंदोलन जारी था । हमें लगता था , हमारे साथ भेदभाव हो रहा था । पंजाब के बाहर लोग हमें देख कर ताने मारते थे -- " सरदारजी , ख़ालिस्तान कब ले रहे हो ! "
" मैं उन दिनों खालसा काॅलेज , अमृतसर में पढ़ता था । हम में से कुछ सिख युवकों के लिए ख़ालिस्तान का सपना दिल्ली दरबार की ज़्यादतियों के विरुद्ध हमारे विद्रोह का प्रतीक बन गया । हम महाराज़ा रणजीत सिंह के सिख राज्य को फिर से साकार करने के लिए काम करने लगे । मैं सिख स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन का सरगर्म कार्यकर्ता था । पुलिस के अत्याचार देख कर मेरा ख़ून खौल उठता । 1985 में मैं मिलिटैंट मूवमेंट में शामिल हो गया । हथियार हमें पड़ोसी देश से मिल जाते थे । उसका अपना एजेंडा था । अत्याचारियों से बदला लेना और ख़ालिस्तान की राह में आ रही रुकावटों को दूर करना ही हमारा मिशन था ।मैं अपने काम में माहिर निकला । दो-तीन सालों के भीतर ही मैं अपनी फ़ोर्स का कमांडर बन गया । पुलिस ने मुझे ' ए ' कैटेगरी का आतंकवादी घोषित कर दिया ।मेरे सिर पर बीस लाख का इनाम रख दिया गया ।
" इन्हीं दिनों हमारी फ़ोर्स में एक नया लड़का सुरिंदर शामिल हुआ ।उसने मुझे बताया कि इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद नवंबर-दिसंबर , 1984 में दिल्ली में हुए सिख-विरोधी दंगों में उसका पूरा परिवार मारा गया था । उसके अनुसार दंगाइयों ने उसके बूढ़े माँ-बाप और भाई-बहनों के केश कतल करने के बाद उनके गले में टायर डाल कर उन्हें ज़िंदा जला दिया था । सुरिंदर ने कहा कि अब वह केवल बदला लेने के लिए जीवित था । उसने बताया कि वह सिखों के दुश्मनों को मिट्टी में मिला देना चाहता था । उसकी बातें सुन कर मुझे लगा कि हमारी फ़ोर्स को ऐसे ही नौजवान की ज़रूरत थी । मुझे सुरिंदर हमारे मिशन के लिए हर लिहाज़ से सही लगा । मैंने उसे अपनी फ़ोर्स में शामिल कर लिया ।
" कुछ दिन बाद एक रात हमने मिशन के एक काम पर जाने का फ़ैसला किया । मैं , सुरिंदर और हमारे कुछ और लड़के मोटर साइकिलों पर सवार हो कर रात बारह बजे अमृतसर के सुल्तानविंड इलाक़े से गुज़र रहे थे । हमारे पास ए. के. 47 राइफ़लें थीं । हम सब ने शालें ओढ़ी हुई थीं । सुरिंदर मोटर साइकिल चला रहा था और मैं उसके पीछे बैठा था । वह रहस्य और रोमांच से काँपती हुई रात थी ।
" अचानक बीस-पच्चीस मीटर आगे हमें पुलिस का नाका दिखाई दिया । पुलिस की दो-तीन जिप्सी गाड़ियाँ और दस-पंद्रह जवान वहाँ खड़े थे । हम सब ने अपनी-अपनी मोटर साइकिलें रोक लीं । पुलिस वालों ने देखते ही हमें ललकारा । मैं वहाँ एन्काउंटर नहीं चाहता था । हम आज रात एक ख़ास मिशन के लिए निकले थे । मेरे इशारे पर बाक़ी लड़के अपनी-अपनी मोटर साइकिलें मोड़ कर पास की गलियों में निकल भागे । पर सुरिंदर हथियारबंद पुलिसवालों को देखते ही डर के मारे आँधी में हिल रहे पत्ते-सा काँपने लगा । मेरे लाख आवाज़ देने के बावजूद वह मोटर साइकिल पकड़े अपनी जगह पर जड़-सा हो गया । पुलिस वाले पास आते जा रहे थे । मजबूरन मैंने अपनी शाल हटाई और पुलिस वालों को डराने के लिए अपनी ए.के. 47 से हवाई फ़ायरिंग की । पुलिस वाले रुक गए । इस मौक़े का फ़ायदा उठा कर मैं सुरिंदर को घसीटते हुए पास की गली की ओर ले भागा । हमें भागता हुआ देख कर पुलिस वालों ने हम पर फ़ायरिंग शुरू कर दी । एक गोली सुरिंदर की जाँघ में आ लगी । तब तक मेरे कुछ साथी हमें बचाने के लिए वापस लौट आए थे । गोली-बारी के बीच घायल सुरिंदर को सहारा दिए मैं और मेरे बाक़ी साथी मोटर-साइकिलों पर बैठ कर किसी तरह बचते-बचाते वहाँ से निकल भागे ।
" अपने छिपने के ठिकाने पर पहुँच कर मैंने सुरिंदर से पूछा, " तू भागा क्यों नहीं
था ? " पर उसका चेहरा डर के मारे राख के रंग का हो गया था । उसके मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही थी । हमने उसकी जाँघ में लगी गोली निकाल कर उसकी मरहम-पट्टी की । अब वह अगले पंद्रह-बीस दिनों तक वैसे भी किसी मिशन पर जाने के लायक नहीं था । पर मेरा दिल उस घटना से खट्टा हो गया था । उस दिन सुरिंदर को पुलिसवालों के सामने डर से थर-थर काँपता देख कर मैं ख़ुद से शर्मिंदा हुआ कि यह मैंने किस कायर को अपनी फ़ोर्स में शामिल कर लिया था ।
" पर मिशन के काम तो नहीं रुक सकते थे । ख़ालिस्तान बनाने का सपना लिए हम दिन-रात अपने काम पर जुटे रहते । कभी सिख युवकों पर अत्याचार करने वाले किसी व्यक्ति को रास्ते से हटाना होता , कभी अपने किसी साथी को पुलिस की हिरासत से छुड़ाना होता । मैं और मेरी फ़ोर्स के बाक़ी लड़के सुरिंदर को अपने ठिकाने पर छोड़कर हर दूसरी-तीसरी रात में किसी-न-किसी मिशन पर निकल जाते । सुबह चार-पाँच बजे तक हम अपना काम करके वापस लौट आते । कभी-कभी दिन में भी मिशन के काम से जाना पड़ता । हालाँकि सुरिंदर का हमारी फ़ोर्स में आना हमारे लिए बदक़िस्मती जैसा ही था । जब से वह आया था , हमारे बहुत-से साथी पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ों में मारे जाने लगे थे । ख़ैर । यही हमारा जीवन था । कभी मिशन के कामयाबी की ख़ुशी । कभी साथियों के बिछुड़ने का ग़म ।
" हमारी देखभाल के कारण सुरिंदर की जाँघ में लगी गोली का ज़ख़्म धीरे-धीरे ठीक होने लगा था । मुझे लगा , मुझे उसे ख़ुद को साबित करने का एक और मौक़ा देना चाहिए । शायद वह इस बार हमारी उम्मीदों पर ख़रा उतर सके । मैं उसके पूरी तरह ठीक हो जाने का इंतज़ार करने लगा ।
" एक रात अपना काम निबटा कर हम सभी वापस अपनी रिहाइश की ओर लौट रहे थे । वह सलेटी आकाश, भीगी हुई हवा और पैरों के नीचे मरे हुए पत्तों का मौसम था । सुबह के चार बज रहे थे । जुगनुओं की पीठ पर तारे चमक रहे थे । मैं सबसे आगे था । घर में चुपके से घुसने पर मैंने पाया कि कि सुरिंदर जगा हुआ था और दूसरे कमरे में किसी से फ़ोन पर बातें कर रहा था । मुझे हैरानी हुई । मैंने उसके पास जा कर छिप कर उसकी बातें सुनीं तो मेरे होश उड़ गए । सुरिंदर पुलिसवालों से बातें कर रहा था और उन्हें हमारे बारे में ख़ुफ़िया जानकारी दे रहा था । उसने हमें पकड़वाने के लिए शायद पहले से ही पुलिसवाले भी बुला रखे थे । मैं सन्न रह गया ।
" हमारे साथ धोखा हुआ था । दुश्मन दोस्त का भेस बना कर आया था । वह पुलिस का मुख़बिर है , यह जानकर मेरा ख़ून खौल उठा । ' ओए गद्दारा ' -- मैं ग़ुस्से से चीख़ा और अपनी किरपान निकाल कर मैंने उस पर हमला कर दिया और उसे घायल कर दिया । हम दोनों गुत्थमगुत्था हो गए । पर तभी आसपास छिपे पुलिसवाले घर का दरवाज़ा तोड़कर अंदर आ गए और उन्होंने मुझे घेर लिया । उनकी स्टेन-गन और कार्बाइन मेरे सीने पर तनी हुई थीं । " इतना कह कर सरदारजी चुप हो गए । उन्होंने धीरे से अपना गिलास उठाया और गिलास में बची बाक़ी बीयर ख़त्म की ।
" सुरिंदर का क्या हुआ ? " मैंने उत्सुकतावश पूछा ।
" पुलिस ने उसे मेरे सिर पर रखे इनाम के बीस लाख की रक़म का आधा हिस्सा दे दिया । दस लाख रुपए ले कर वह वापस दिल्ली भाग गया । " सरदारजी बोले ।
" आपको उसके बारे में इतना कैसे पता ? " मैं हैरान था ।
यह सुनकर सरदारजी का चेहरा स्याह हो गया । उनके हाथ काँपने लगे । ए.सी. में भी उनके माथे पर पसीना छलक आया ।
आख़िर किसी तरह कोशिश करके उन्होंने कहा ," क्योंकि मैं जसबीर नहीं हूँ । मैं ही वह बदनसीब सुरिंदर हूँ । वह ग़द्दार मैं ही हूँ । मैंने वह कहानी जान-बूझकर आपको दूसरे ढंग से सुनाई थी । " सरदारजी के हाथ अब भी थरथरा रहे थे ।
उनकी बात सुनकर मैं हतप्रभ रह गया । प्याज़ की परतों की तरह इस कहानी में रहस्य की कई तहें थीं जो एक-एक करके खुल रही थीं ।
" मेरे दाएँ हाथ की कलाई के ऊपर इस ज़ख़्म का दाग़ मुझे जसबीर ने दिया था जब मेरी असलियत जानकर उसने किरपान से मुझ पर हमला किया था ।" सरदारजी ने आगे कहा ।
" जसबीर का क्या हुआ ? " मैं अब भी इस अजीब पहेली को समझने का प्रयास कर रहा था ।
" उस दिन सुबह साढ़े चार बजे के आसपास उसके लिए दुनिया रुक गई । पुलिसवालों ने उसे मेरे सामने ही गोली मार दी । उस समय वह निहत्था था । उस दिन उसके फ़ोर्स के ज़्यादातर लड़कों को पुलिसवालों ने धोखे से मार दिया । उन सबकी मौत का ज़िम्मेदार मैं हूँ ।" सरदारजी ने भारी स्वर में कहा । कुएँ के तल में जो अँधेरा होता है, वैसा ही अँधेरा मुझे उनकी आँखों में नज़र आया ।
" आप दुखी क्यों होते हैं ? आख़िर वे सब आतंकवादी थे । " मैंने उन्हें दिलासा दिया ।
" हर आदमी के भीतर कई और आदमी रहते हैं । यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसके किस रूप के दरवाज़े पर दस्तक देते हैं । मुझे नहीं मालूम वे आतंकवादी थे या गुमराह नौजवान । मैं तो सिर्फ इतना जानता हूँ कि पैसों के लालच में आ कर मैंने उस आदमी को धोखा दिया , उस आदमी से ग़द्दारी की जिसने अपनी जान पर खेल कर मुसीबत में मेरी जान बचाई थी । जिसने मेरी देख-भाल करके मेरे ज़ख़्म ठीक किए थे । उसे पुलिस के हाथों मरवा कर मुझे रुपए-पैसे तो बहुत मिले पर उस दिन से मेरे दिल का चैन खो गया । मेरी अंतरात्मा मुझे रह-रह कर धिक्कारती है कि तू दग़ाबाज़ है । मैं रात में बिना नींद की गोली खाए नहीं सो पाता । मेरे सपने मेरी वजह से मरे हुए लोगों से भरे होते हैं । मेरे सपनों में अक्सर दर्द से तड़पता और लहुलुहान जसबीर आता है । वह मुझ से पूछता है --" मैंने तो तेरी जान बचाई थी । फिर तूने मुझे धोखा क्यों दिया ? " और मैं उससे नज़रें नहीं मिला पाता । उसकी फटी हुई आँखें , उसके बिखरे हुए बाल , उसकी ख़ून से सनी पगड़ी और उसके सीने में धँसी कार्बाइन और स्टेन-गन की गोलियाँ मुझे इतनी साफ़ दिखाई देती हैं जैसे यह कल की बात हो , हालाँकि इस घटना को हुए पच्चीस साल गुज़र गए । मेरा अतीत एक ऐसा शीशा है जिसमें मुझे अपना अक्स बहुत बिगड़ा हुआ नज़र आता है । एक चीख़ दफ़्न है मेरे सीने में । मैंने जीवन में जो हथकड़ी बनाई है , मैं उसे पहने हूँ ।" इतना कह कर सरदारजी ने लम्बी साँस ली ।
" होनी को कौन टाल सकता है, सुरिंदर भाई । पर अब तो आपके पास काफ़ी पैसा होगा । आप प्लास्टिक-सर्जरी करवा कर अपने हाथ के उस ज़ख़्म का यह दाग़ क्यों नहीं हटा लेते ? आप रोज़-रोज़ जब अपनी दाईं कलाई के ऊपर यह दाग़ नहीं देखेंगे तो वक़्त बीतने के साथ-साथ शायद आप इस हादसे को भी भूल जाएँगे । " मैंने सरदारजी को सांत्वना देते हुए सलाह दी ।
सरदारजी ने कातर निगाहों से मुझे देखा और बोले -- " समंदर के पास केवल खारा पानी होता है । अक्सर वह भी प्यासा ही मर जाता है । जब पुलिसवालों ने जसबीर को गोली मारी थी तो मैं उसके बगल में ही खड़ा था । मेरे कपड़े उसके ख़ून के दाग़ से भर गए थे । मेरे हाथ उसके ख़ून के छींटों से सन गए थे । अब रहते-रहते मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरे कपड़ों पर , मेरे हाथों पर ख़ून के दाग़ लगे हुए हैं । मैं बार-बार जा कर वाश-बेसिन में साबुन से हाथ धोता हूँ । पर मुझे इन दाग़ों से छुटकारा नहीं मिलता । मैंने बहुत दवाइयाँ खाईं जी । साइकैट्रिस्ट से भी अपना इलाज करवाया । पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ । आपने ठीक कहा । आज मेरे पास पैसे की कमी नहीं । वाहेगुरु का दिया सब कुछ है । प्लास्टिक-सर्जरी करवा कर मैं अपनी दाईं कलाई के ऊपर बन गए इस दाग़ से छुटकारा भी पा जाऊँगा । पर मेरे ज़हन पर , मेरे मन पर जो दाग़ पड़ गए हैं , उन्हें मैं कैसे मिटा पाऊँगा ? "
मैं चुपचाप उन्हें देखता-सुनता रहा । मेरे पास उनके सवालों का कोई जवाब नहीं था । उनके भीतर एक जमा हुआ समुद्र था । उनका दुख जीवन जितना बड़ा था ।
हमने वेटर को बुला कर बीयर और टिप के पैसे दिए और ' वोल्गा ' से बाहर निकल आए । नौ बज रहे थे । बाहर हवा में रात की गंध थी । जगमगाते शो-रूमों के पीछे से आकाश में आधा कटा हुआ पीला चाँद ऊपर निकल आया था ।
अचानक वे खोए हुए अंदाज़ में फिर से बोल उठे -- " मेरे कपड़ों पर कोई दाग़-वाग तो नहीं लगा जीa?" उनके माथे पर परेशानी की शिकन पड़ गई थी । उनकी आँखों में क़ब्र का अँधेरा भरा हुआ था । वे अपने भीतर फँसे छटपटा रहे थे ।
मैंने सहानुभूतिपूर्वक उनके कंधे पर हाथ रखा । वे जैसे दूर कहीं से वापस लौट आए । समय के विराट् समुद्र में कुछ ख़ामोश पल ओस की बूँदों-से टप्-टप् गिरते रहे ।
उनसे विदा लेने का समय आ गया था । मैंने उनसे हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया । पर उनकी आँखों में पहचान का सूर्यास्त हो चुका था ।
" कुछ ज़ख़्म कभी नहीं भरते, कुछ दाग़ कभी नहीं मिटते ," वे आकाश की ओर देख कर बुदबुदाए और मेरे बढ़े हुए हाथ को अनदेखा कर पार्किंग में खड़ी अपनी होंडा सिटी की ओर बढ़ गए । मैं उनकी गाड़ी को दूर तक जाते हुए देखता रहा ।
------------०-----------
प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
A-5001,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014
( उ. प्र. )
मो: 8512070086
ई-मेल: sushant1968@gmail.com
वैश्विक मंच "वातायन" के तत्वावधान में ११४वीं प्रवासी संगोष्ठी का आयोजन
14 Aug, 2022 04:46 PM IST | WEWITNESSNEWS.COM
लन्दन - १४ अगस्त, २०२२ : वैश्विक मंच "वातायन" के तत्वावधान में ११४वीं प्रवासी संगोष्ठी का शुभारंभ दिनांक : १३ अगस्त, २०२२ (शनिवार) को भारतीय समय के अनुसार रात्रि ८.३० पर...