२६ जनवरी १९५० को भारतीय गणतंत्र का संविधान क्रियान्वित हुआ और इसके तुरंत बाद जनमानस में एक आशा का संचार हुआ कि अब वे फिर से एक स्वर्ण युग में प्रवेश करने जा रहे हैं तथा उन्होंने १५ अगस्त १९४७ को भारत की स्वतंत्रता के दिन जो विरोधाभास देखे थे--एक ओर आज़ादी के जश्न में डूबे हुए कांग्रेसी नेता थे तो दूसरी ओर देशभर में रक्त-रंजित बलवे हो रहे थे, उनसे अब उन्हें दो-चार नहीं होना पड़ेगा। भारत के संविधान के लागू होने तक देश का संचालन ब्रिटिशों द्वारा छोड़ी गई शासकीय परंपरा के अनुसार हो रहा था जबकि लोगबाग यह सवाल करते हुए सशंकित थे के स्वतंत्रता के बाद यह कैसा आलम है कि हम अभी भी उन्हीं के द्वारा  बनाए गए नियम-कानूनों से शासित हो रहे हैं। बहरहाल, संविधान सभा के सदस्य बड़ी अफरातफरी के साथ-साथ अत्यंत जोश-उमंग के साथ एक ऐसे संविधान के निर्माण में दिन-रात दत्तचित्त थे ताकि देश का संविधान भारतीय समाज का जीवंत आइना बने। 
यदि भारत में जन-जीवन को बिंबित करने वाली किसी आचार-संहिता का दृष्टान्त सामने रखा जाए तो वे थीं  -- याज्ञवल्क्य, नारद, बृहस्पति, विष्णु और मनु  जैसे आचार-संहिताकारों की आचार-संहिताएं जिन्हें वर्तमान संविधान के निर्माण और परिकल्पन में खास महत्त्व नहीं दिया गया। इसका एकमात्र कारण यह था कि उन आचार-संहिताकारों के काल में संस्कृतियों और आचार-विचारों में व्यापक तौर पर एकरूपता थी तथा यवनों, शकों, कुषाणों आदि विदेशी आक्रांताओं के आर्यावर्त में आगमन के पश्चात् भी हमारी संस्कृति विरूपित नहीं हुई क्योंकि उन विदेशियों ने शीघ्र ही हमारी जीवन-शैली को आत्मसात कर लिया तथा इस प्रकार हमारी संस्कृति की मौलिकता बनी रही। किन्तु, हमारी संस्कृति पर हमला कोई सातवीं सदी के बाद आरम्भ हुआ जबकि वर्धन साम्राज्य का अवसान हुआ और पैगम्बर मोहम्मद के धर्म-प्रचारकों ने दंड-भेद नीति के अनुसार भारत की मूल संस्कृति को तहस-नहस करना शुरू कर दिया। उसके बाद, मुगलकाल में जहांगीर की सदारत में अंग्रेजों के ईसाई धर्म का व्यापारिक संबंध स्थापित करने के बहाने प्रवेश हुआ। इस तरह हमारी मूल संस्कृति के अतिरिक्त दो विदेशी संस्कृतियों के आगमन से एक मिश्रित संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि थोपी गई विदेशी संस्कृतियों के जरिए हम एक नई संस्कृति को सहेजने में लग गए और विभिन्न धार्मिक संतों और विचारकों ने इस संस्कृति को स्थायित्व प्रदान करने का प्रयास किया। 
भारतीय संविधान इन्हीं तीन संस्कृतियों को सहेजने का एक लिखित प्रयास है जबकि इसमें ब्रिटिश प्रभाव आद्योपांत विद्यमान है क्योंकि आज भी इस संविधान में अंग्रेजों के ज़माने के असंख्य कानून विद्यमान हैं जबकि कुछ में तो संशोधन किया गया है लेकिन कइयों में कुछ भी बदलाव नहीं किए गए हैं। हमारा संविधान विभिन्न संस्कृतियों में तालमेल बैठाने के लिए कृतसंकल्प तो है लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। कुछ समुदाय अपने धार्मिक ग्रन्थ के आधार पर ही अपने लोगों के जीवन को नियंत्रित-संचालित करना चाहते हैं जबकि अधिसंख्य समुदाय संविधान के अनुसार चलने में कुछ भी गुरेज नहीं करते। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि उन्हें यह चिंता ही नहीं रहती कि उन्हें किन नियमों-कानूनों के अनुसार समाज में रहना है। वे भेड़चाल चलते हुए जिधर भी हाँक दिया जाता है, उसी तरफ चलने लगते हैं। 
भारतीय संविधान में एक बात उल्लेख्य है कि इसे बौद्ध परंपराओं के अनुसार परिसीमित किया गया है।  इसका एक कारण यह है कि अम्बेडकर का रुझान बौद्ध धर्म की ओर था और उन्होंने संविधान का प्रारूप तैयार करते हुए बौद्ध परंपराओं का काफी अध्ययन किया था। अस्तु, बौद्ध परंपरा और आर्यावर्त की मूल परंपरा में किंचित भी अंतर नहीं है। जो लोग यह कहते हैं कि भगवान बुद्ध द्वारा समाज को एक अन्य दिशा में निर्देशित किया गया था, यह बिलकुल भ्रामक है। समिति, परिषद्, राजा के अधिकार, प्रजा के कर्तव्य, दंड-विधान, आर्थिक जीवन-निर्धारण, न्याय-व्यवस्था, सामाजिक सहिष्णुता, वैदेशिक नीति आदि वैसे ही हैं जैसे कि वे महाकाव्य काल में थे। यह तो इस देश में विदेशी संस्कृतियों के उन्नायकों बौद्ध जीवन शैली को भिन्न रूप में पेश किया ताकि इस अविच्छिन्न समाज को विच्छिन्न किया जा सके।  ऐसा हमारे वामपंथी इतिहासकारों ने भी किया जिसका एक ज्वलंत दृष्टान्त पंडित नेहरू द्वारा रचित 'भारत की खोज' है जिसमे उन्होंने भारतीय जीवन शैली को उपहासात्मक रूप में चित्रित किया है। कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि 'भारत की खोज' वामपंथी विचारधाराओं के प्रभाव में लिखा गया। 
अस्तु, मौजूदा भारतीय संविधान के पुनरवलोकन की महती आवश्यकता है। यह  भारतीय जीवन के वर्तमान आचार-संहिता के रूप में स्थापित तो है किन्तु इसमें इतना अधिक लचीलापन है कि यह हमारे समाज को नियंत्रित करने में पूर्णतया सफल नहीं है। इसमें वर्णित विधि-नियंता संबंधी सभी संस्थाएं इसका अनुपालन अक्षरश:नहीं कर पाती हैं। आखिर क्या बात है कि समाज के विभिन्न वर्गों में तालमेल बैठाने में हमारा संविधान सफल नहीं है। आज इस २६ जनवरी को इन बातों पर आत्ममंथन करने की आवश्यकता है। 
 
 
न्यूज़ सोर्स : wewitness