जब से उत्तर प्रदेश में चुनावी विगुल का सिंहनाद हुआ है, नेताओं में बड़ी खलबली मची हुई है। वे फटाफट पार्टियां बदलकर अपना राजनीतिक भविष्य उज्ज्वल बनाने के ज़द्दोज़हद में लगे हुए हैं और इसी उहापोह में राज्य की सत्तारूढ़ सरकार के मंत्री और विधायक समाजवादी पार्टी में शामिल होते नज़र आ रहे हैं। जबकि समाजवादी पार्टी के भी कई नेता भाजपा से हाथ मिलाकर चुनावी जंग में दो-दो हाथ करने के लिए दांवपेंच भिड़ा रहे हैं। अब तक सपा और भाजपा में दलबदल करने वाले नेताओं की संख्या लगभग बराबर है। भाजपा से सपा में जाने वाले नेताओं द्वारा ऐन मौके पर पार्टी छोड़ने के लिए भले ही अनेकानेक तर्क दिए जाएं; लेकिन यह तो साफ़ है कि उन्हें लग रहा है कि शायद इस चुनाव में सपा के हाथ बटेर लग जाए अर्थात अखिलेश बतौर मुख्य मंत्री सत्ता पर काबिज हो जाएं और उनके चुने हुए सदस्यों को कोई विभाग और मंत्रालय मिल जाए। पर, इस १९ जनवरी को मुलायम सिंह की छोटी बहू द्वारा भाजपा में शामिल होने पर अखिलेश की बहुत किरकिरी हुई है तथा भाजपा पंडालों में उल्लास पार्टियां आयोजित की जा रही हैं। पिछले चुनाव में तो सपा की पतली हालत सभी ने देखी थी लेकिन इस दफे शायद वैसी स्थिति न हो। भाजपा के मौजूदा मुख्यमंत्री को कई-कई आरोपों से घेरते हुए उन्हें पटखनी देने के लिए सभी संभावित नुस्खे आजमाए जा रहे हैं। मसलन, भाजपा को सांप्रदायिक और मुस्लिम-विरोधी पार्टी के तगमे से नवाज़ते हुए राज्य की लगभग २० फीसदी मुस्लिम आबादी को अपने पाले में लाने का  मंसूबा अखिलेश ने पाल रखा है।  लेकिन इसमें वह कितने सफल होंगे, यह तो चुनावी नतीजे के बाद ही पता चलेगा। क्योंकि सोशल मीडिया और विभिन्न न्यूज़ चैनलों द्वारा किए जा रहे दावों से चुनावी परिणाम धुंधला ही दिखाई दे रहा है। ऐसा लग रहा है कि सपाई नेताओं द्वारा जीत के जो दावे किए जा रहे हैं, वे खुद मुस्लिम जनसँख्या के भाजपा की ओर रुझान से झूठे प्रतीत हो रहे हैं। ठीक इसके विपरीत, राज्य में इस चुनाव में भाजपा के लिए राह आसान नहीं है। चाहे कुछ भी हो और कितना भी बात का बतंगड़ बनाए जाए, भाजपा को सूबे के सभी इलाकों में हिंदुत्ववादी पार्टी के रूप में ही देखा जा रहा है जिससे मज़हबी चश्मे वाली मुस्लिम जनसंख्या बिदकती-सी लग रही है। यह तो तय है कि भाजपा को जोरदार टक्कर मिलने वाली है। गेरुए वस्त्रधारी मुख्यमंत्री के स्थान पर जालीदार टोपीवाले मुख्यमंत्री का साफ़ अक्स उभरता-सा नज़र आ रहा है। बहरहाल, दोनों पार्टियों के नेता चाहे कितनी भी डींगें हाँक लें, इस समय राज्य की जनता दोनों को बड़े तज़ुर्बे के साथ ताड़ रही है। जिन मुस्लिमों ने विगत पांच वर्षों में राज्य में हुए विकास का सही-सही आकलन किया है, वे इमामों और मौलवियों के झांसे में भी नहीं आने वाले हैं। वे साफ़-साफ़ बयानबाजी करते सुने जा रहे हैं कि उनका वोट उसी को, जो राज्य में तरक्की लाए और सारे भेदभाव मिटाए।

चुनांचे, जहाँ तक दलबदलू नेताओं के अस्थिर दिमाग का सम्बन्ध है, वे तो इस चुनाव में बस अपना भविष्य देख रहे हैं। उन्हें राज्य विधान सभा से संसद तक रास्ता तय करना है, चाहे रास्ते में कितने ही व्यवधान आएं। उन्हें देश के भविष्य और फटेहाल जनता की भलाई से क्या लेना-देना है, उनके नाम पर बस जनप्रतिनिधि का लोकतांत्रिक ठप्पा लगना चाहिए। 

न्यूज़ सोर्स : wewitness