महात्मा गाँधी ने शैक्षणिक संस्थाओं में छात्रों को राजनीति का व्यावहारिक प्रशिक्षण देने के लिए उन्हें हर स्तर पर छात्र-संघ की स्थापना करने की सलाह दी थी। इस प्रयोजनार्थ, उन्होंने कहा था कि प्रत्येक शैक्षणिक संस्था में उसी तरह चुनाव आयोजित किए जाने चाहिए जिस तरह कि भारत गणराज्य में केंद्रीय और राज्यीय स्तर पर चुनाव आयोजित किए जाते हैं और देश के प्रशासन को सुचारु गति देने के लिए नीतियां और कार्यक्रम तैयार किए जाते हैं। यह भारतीय लोकतंत्र के शैशवावस्था में युवाओं को राजनीति का सबक देने के लिए एक सराहनीय उपक्रम था जिसमे देशभर के प्रतिभागी किशोरों और युवाओं ने प्रजातंत्र के नियमों और परंपराओं को समझा और उनका प्रयोग भी किया। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इन्हीं शैक्षणिक संस्थाओं ने अनेकानेक कुशल राजनीतिज्ञों और राजनेताओं को सजा-संवार कर संसद और विधानसभाओं में भेजा।
 
लेकिन आज के सियासी परिवेश में स्थितियां एकदम उलट हो गई हैं; महात्मा गाँधी का उक्त उद्देश्य पराजित हो चुका है। जो राजनेता सियासत में कदम रख रहे हैं, उन्हें राजनीति के गुर का 'कखग' तक नहीं पता है। राष्ट्र-हित की बात तो उनके जेहन में कभी आती ही नहीं। हाँ, कुटिल नीति, छल-प्रपंच, झूठ-फरेब, स्वार्थ-सिद्धि, अवसरवादिता, लूट-खसोट, मज़हबी कट्टरता, जातिवाद जैसी संकीर्ण बातों को पुरजोर हवा देने और जनता में कटुता एवं वैमनस्यता पैदा करने के लिए ही वे राजनीति में पदार्पण करते हैं। येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करके अपने कुटुंब और अपने वर्ग-विशेष का पोषण करना ही उनका उद्देश्य होता है। सिद्धांतों और परंपराओं पर अमल करते हुए जनकल्याण के बारे में तो वे सपने में भी नहीं सोचते। जिन युवाओं का पेट ठगी, भ्रष्टाचार और अपराध से नहीं भरता, वे सियासत में आकर दीर्घकाल तक अपने कुकर्मों से इतना कुछ अर्जित कर लेते हैं कि देश के महानगरों में उनकी अट्टालिका-कोठियां होती हैं, विदेशी बैंकों में उनका भारी-भरकम धन जमा होता है, उनके कदम कभी जमीन पर नहीं पड़ते, पोशाकों की तरह वे प्रेमिकाएं बदलते हैं और बेहद नामचीन मंहगे होटलों में वे रातें गुजरते हैं। 
 
आज के सियासत में पढ़े-लिखे विशेषज्ञ बुद्धिजीवियों का तो नामो-निशान तक नहीं मिलता। विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों, कूटनीति में गहरी पैठ रखने वाले अनुभवी अधिकारियों और कर्मचारियों, निःस्वार्थ समाज-सेवियों, लेखकों और विचारकों, समाजोद्धार में ऋषि-समान भूमिका निभाने वाले त्यागी और आत्मबलिदानी व्यक्तियों, प्रतिभाशाली अर्थशास्त्रियों, आचरण-संहिताकारों आदि जैसे परदे के पीछे रहने वाले व्यक्तियों को राजनीति में अवसर क्यों नहीं मिलता ? क्या ऐसे सुयोग्य व्यक्तियों को मुखर करने के लिए कोई सरकारी उपक्रम या योजना नहीं बनाई जा सकती? आज के सियासत में तो बुद्धि-विलासी और प्रतिभाशाली व्यक्तियों की दुर्भिक्ष-सी पड़ी हुई है। इस बात का सर्टिफिकेट तो हमें तभी मिल जाता है जबकि हम आए-दिन चुनावों के अखाड़ों में उम्मीदवारों के चरित्र पर निगाह डालते हैं जिनके पास कोई उचित शिक्षा नहीं होती; हाँ, पैसे से खरीदी हुई पीएचडी और अन्य ऊँची-ऊँची डिग्रियां अवश्य होती हैं। उनके पास बलात्कार, हत्या, जेल-यात्रा, गुंडागर्दी, माफियागिरी, डकैती, अपहरण जैसे निष्कंटक कारनामे करने का न्यायालय से प्राप्त सर्टिफिकेट अवश्य होता है। क्या ऐसे व्यक्तियों के संसद और विधानसभाओं में प्रवेश पर रोक लगाने के लिए कोई विधान नहीं है? क्या इस देश की न्याय-व्यवस्था तथा देश के महान संविधान में कोई ऐसा प्रावधान नहीं है कि जिससे इन पर अंकुश लगाकर समाज से बहिष्कृत किया जा सके ? आखिर, देश का चुनाव आयोग भी लकवाग्रस्त है कि वह इन पर शिकंजा नहीं कस सकता ? यह कैसा लोकतंत्र है जहाँ कोई भी व्यक्ति शासन का बागडोर अपने हाथों में ले सकता है ? लोकतंत्र का तो यह अर्थ नहीं है कि अपराधी और भ्रष्टाचारी भी बंद जेलों तक से पोलिटिकल पार्टियों से टिकट लेकर और चुनाव जीतकर प्रशासन की लगाम अपने हाथों में ले सकते हैं?
 
आइए, हम सभी इस बात पर विचार-मंथन करें कि छिपी हुई प्रतिभाएं ही सिर्फ लोकतंत्र के संचालन में भाग ले सकें। यदि लोकतंत्र के सांसदों, विधायकों और मंत्रियों आदि से उनकी सुविधाएं छीन ली जाएं तो बेशक, इसमें सुयोग्य व्यक्तियों का आना संभव हो सकता है। बेशकीमती सुविधाएं और उनको मिलने वाले बड़े-बड़े भत्ते मिलने बंद हो जाएं तो सियासत में वे स्वयं आना नहीं चाहेंगे। हाँ, अपने लोकतंत्र को सुधारने के लिए बस एक यही नुस्खा अमल में लाया जाना चाहिए। 
न्यूज़ सोर्स : wewitnessnews.com