🍀ग़ज़ल🍀​​

 

ज़िंदगी के कुछ सुभीते बन रहे हैं,

भूख से लड़ने के टीके बन रहे हैं।

 

पत्थरों में दिल उगाये जा रहे हैं,

कारखानों में फ़रिश्ते बन रहे हैं।

 

भेड़ियों की गंध हर उस माँद में है,

जो बसेरे आदमी के बन रहे हैं।

 

जख़्म भरने जब से निकला है मसीहा,

जिस्म पर लोगों के चीरे बन रहे हैं।

 

अब ज़मीं पर पाँव रक्खेंगे भला क्यों,

चाँद पर चढ़ने के ज़ीने बन रहे हैं।

 

हो गयी है रात यह तारीक इतनी,

के चराग़ों पर लतीफ़े बन रहे हैं।

 

क्या सितम है डूब जायेंगे नदी में,

जो ये बच्चों के सफ़ीने बन रहे हैं।

 

छोड़िये तलुओं में कुछ कलियाँ चुभीं हैं,

वगरना काँटे लचीले बन रहे हैं।

                                                                                    

कवि के बारे में 

जन्म-स्थान : वाराणसी, उ.प्र.

बचपन से काव्य सृजन; मंचोँ पर किशोरावस्था से काव्य पाठ

शिक्षा : एम ए, पी-एच.डी. (हिंदी साहित्य)

गज़ल, गीत और छंद-मुक्त कविताओँ की कई पुस्तकेँ प्रकशनाधीन

सम्प्रति : उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग मेँ उप-सचिव के रूप मेँ पदस्थ 

निवास-स्थान : हवेलिया, झूंसी, इलाहाबाद 

न्यूज़ सोर्स : Literary Desk, WEWITNESS MAG.