चार लघु कविताएं-- मनोज मोक्षेंद्र,
1.
ढक्कन- बंद औरतें
काले-काले बोरों में ढंकी औरतें
लोकप्रिय फैशन के अनुसार तो
औरतें ही होंगीं,
इन ढक्कन-बंद औरतों के बारे में
तय नहीं कर पाओगे--
इनकी उम्र यानी बचपन और जवानी
या कब वे पेट से हुईं?
बोरों में चीज़े बेमोल बिकती हैं
बंदूक की नोक पर इन्हें खरीद लो
फायदे का सौदा होगा,
फिर, खोलकर इनकी चीर-फाड़ करो
देखो कि माल असली है या मिलावटी?
2.
संगीत-शिक्षा
पाठशालाओं में इन बच्चों ने
बंदूकों को गुनगुनाते हुए सुना है,
खंझरों से सरगम सीखा है,
आरडीएक्स के तंतुओं से
बिनी चटाई पर बैठ बच्चे
मिसाइलों के छूटने जैसा आलाप छोड़ते हैं,
हालांकि उस जमाने की
संगीत की किताबों में
राग और स्वर-विस्तार
प्यासी तलवारें किया करती थीं
3.
औरतें क्या-क्या हैं...
उनके लिए औरतें पेशाबखाना हैं,
गरमागरम रसोई हैं,
डाइनिंग टेबल पर
फड़कती चिकन लेग-पीस हैं,
नाचती हुईं शराब की बोतलें हैं,
पर, बाथरूम नहीं हैं
क्योंकि उनकी आदतों में
नहाना शुमार नहीं है
4.
बेचैनी
उस कुंभकर्णी संस्कृति का हाजमा
कितना दुरुस्त है
तमाम प्राण और देश
पचा चुकाने के बाद
आकाशगंगाओं से
अपनी प्यास बुझाने को बेचैन हैं