लन्दन, ०३ अप्रैल २०२३ : 'वातायन-यूके' के तत्वावधान में और वैश्विक हिंदी परिवार के सहयोग से दिनांक ०१ अप्रैल, २०२३ को 'फर्स्ट अप्रैल फूल डे' के अवसर पर मूर्ख दिवस का आयोजन किया गया। यह कार्यक्रम भारतीय समय के अनुसार रात्रि ८.३० बजे आरंभ हुआ और लगभग १० बजे तक अविराम चलता रहा। 

यह संगोष्ठी हिंदी की लोकप्रिय विधा 'व्यंग्य' पर केंद्रित थी। इस १४४वीं संगोष्ठी की अध्यक्षता करने के लिए प्रखर व्यंग्यकार डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी को आमंत्रित किया गया था किन्तु, अस्वस्थता के कारण वे 'वातायन यूके' के आभासी मंच पर उपस्थित नहीं हो सके। अस्तु, मंच पर वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ. सूर्यबाला और प्रख्यात साहित्यकार तथा हिंदी-सेवी श्री अनिल शर्मा जोशी की गरिमामयी उपस्थिति ने इस संगोष्ठी में चार चाँद लगा दिए। 

अप्रैल फूल के हास्य-व्यंग्य समारोह के प्रतिभागियों में तीन और जुझारू व्यंग्यकार, नामत: भोपाल के श्री मलय जैन, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के प्रोफ़े. राजेश कुमार और उज्जैन के डॉ. पिलकेंद्र अरोड़ा उपस्थित थे। मंच का सुविध संचालन किया भारत के डॉ. मनोज मोक्षेन्द्र ने। 'वातायन-यूके' की संस्थापिका सुश्री दिव्या माथुर (लन्दन) ने इस संगोष्ठी का संयोजन किया जबकि डॉ. राजेश कुमार इस कार्यक्रम के प्रस्तावक थे। 

श्री मलय जैन ने अपनी 'अज्ञात देश की फेक कथाएं' व्यंग्य सीरीज़ के अंतर्गत 'दूध की नदी' शीर्षक से व्यंग्य-कथा का पाठ किया जिसमें अलग-अलग भूमिकाओं में राजा और उसके अधिकारी बड़े चातुर्य से दूध की बहती नदी से सारी मलाई और दूध के कीमती अवयव 'गड़प' कर जाते हैं और जनता के लिए कुछ भी नहीं छोड़ते हैं। यह व्यंग्य भारत जैसे किसी देश में भ्रष्ट राजनेताओं एवं दुष्ट अधिकारी-तंत्र के कुकृत्यों की ओर संकेतित करते हुए बेईमानी और भ्रष्टाचार  की पराकाष्ठा का चित्रण करता है। डॉ. राजेश ने अपनी व्यंग्य-रचना 'महाकवि और लोकल माइकल डेल' में सरकार को कंप्यूटर जैसी हृदयविहीन मशीनों से तुलना करते हुए हमारे समाज की बहरी और अपाहिज व्यवस्था पर करारा चोट किया है जहाँ 'महाकवि' प्रतीकात्मक रूप में निरीह जनता का द्योतक है जबकि माइकल डेल जंग खाई, किंकर्तव्यविमूढ़ सरकारी तंत्र को रूपायित करता है। निहिताशय यह है कि महाकवि की व्यवस्था को लाइन पर लाने की सारी जुगाड़बाजी निष्फल हो जाती है। अगले व्यंग्यकार डॉ. पिलकेंद्र ने अपनी व्यंग्य-रचना 'सम्मानित होने का डर' में उल्लेख किया कि भारत अब एक सम्मान-प्रधान देश बनकर रह गया है जिसमें सम्मानित होने की जुगाड़बाजी और सम्मानकर्ता एजेंसियों और व्यक्तियों द्वारा लोगों को चुन-चुन कर सम्मानित करने की होड़ का बेबाकी से चित्रण किया गया है। बहरहाल, पिलकेंद्र जी सम्मानित होने की इस होड़बाजी में कतई शामिल नहीं होना चाहते हैं; उन्हें तो सम्मानों से बहुत डर लगता है। डॉ. अनिल शर्मा जोशी जी ने 'चमगादड़ और चील' शीर्षक से अपने व्यंग्य-पाठ को एक अद्भुत आयाम प्रदान किया तथा 'च' से चमगादड़, 'च' से चील और 'च' से चीन के बीच तादात्म्य स्थापित करते हुए अपने व्यंग्य को प्रखर और चुटीला स्वरुप प्रदान किया। उन्होंने आद्योपांत श्रोता-दर्शकों को अपनी विषय-वस्तु से चुंबक की तरह बांधे रखा। डॉ. सूर्यबाला ने अपने व्यंग्य 'जड़ों से जुड़ने का सवाल' में जाने-माने व्यक्तियों के जड़ों से जुड़े रहने के पाखंड की नंगाझोरी बड़े तीक्ष्ण कटाक्ष के साथ की। उन्होंने प्रवासियों के भी जड़ों से जुड़े रहने की हठधर्मिता पर खूब तानाकशी की। उन्होंने बुद्धिजीवियों, राजनेताओं, साहित्यकारों आदि के उस मलाल को आड़े हाथों लिया है जो एक जुमला भौंकते सुने जाते हैं कि उन्हें और लोगों को अपनी जड़ों से जुड़े रहने की अति आवश्यकता है। इन व्यंग्य-रचनाओं में सांकेतिकता इतनी प्रबल है कि व्यंग्य की सभी व्यंग्य-रचनाओं का कथ्य बेहद मार्मिक और गूढ़ हो जाता है।  

तदुपरांत, प्रोफ़ेसर राजेश ने आभासी मंच पर उपस्थित श्रोता-दर्शकों से इस संगोष्ठी के संबंध में प्रतिक्रियाएं मांगी तो शैल अग्रवाल, मोहन बहुगुणा, कैप्टन प्रवीर  भारती, तीरथ सिंह खरबंदा, भंवर लाल, वरुण कुमार आदि ने खुले-मन से सकारात्मक प्रतिक्रियाएं दीं। संगोष्ठी के समापन पर सुश्री दिव्या माथुर ने सभी प्रतिभागियों और श्रोता-दर्शकों को धन्यवाद ज्ञापित किया।  

न्यूज़ सोर्स : wewitness literature desk