अध्याय—एक

कोई पैंतीस वर्ष पहले मैं कितना बड़ा रहा हूंगा, इस बात का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। यानी मुश्किल से बारह साल का था; पर, उस उम्र का होकर भी बिल्कुल अबोध और भोला-भाला था। बताया जाता है कि मुझमें बुरी बातों की समझ बिल्कुल नहीं थी या यूं कहिए कि मैं उनके बारे में जानबूझकर कोई समझ विकसित करना ही नहीं चाहता था जबकि उस उम्र में बालक को सब कुछ समझ में आने लगता है। बहरहाल, मैं शराबियों, जुआड़ियों, लुच्चे-लफ़ंगों, आवारा घूमने-फिरने वाले लड़कों से न केवल दूरी बनाकर रखता था बल्कि उन्हें बड़ी हिकारत से भी देखा करता था। अपने इसी स्वभाव के समानान्तर उसी उम्र में मुझमें धार्मिक रुझान भी पैदा हो गया था और बड़ी श्रद्धा से एक मंदिर में आने-जाने लगा था जहाँ तबले-हारमोनियम सीखते हुए संगीत के नियमों के अनुसार कीर्तन-भजन भी गाता था। उस समय मुझमें धार्मिक आस्था इतनी प्रबल थी कि मैं प्रायः देवी-देवताओं के चित्र भी बाकायदा पेंट करके बनाया करता था। अब समझ में आता है कि बचपन में चित्रकारी करने की ऐसी प्रतिभा के साथ-साथ मुझमें संगीत के प्रति भी इतना लगाव क्यों था।

बहरहाल, अम्मा के बल-बूते पर समूचा घर एक रमणीक मंदिर की तरह सजा-संवरा रहता था। वह हद की सफाई-पसंद महिला थीं। किसी भी दिन मैंने ऐसा नहीं देखा कि पूरे घर के कोने-कोने को गर्द-मुक्त करने, रसोई के कार्य को निपटाने और अंत में नहा-धोकर भगवान की पूजा करने के पहले उन्होंने कभी भोजन किया हो। पौ फटते ही उठने के बाद अपराह्न 3 बजे तक उनकी ऐसी ही दिनचर्या थी। भगवान शिव के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा थी तथा कोई भी दिन ऐसा नहीं होता था कि उन्होंने कोई विशेष व्रत-पूजा न की हो। मैं तो समझता हूँ कि भले ही मैं उनकी तरह सनातनी समाज की रीतियों का बड़ा जानकार नहीं हूँ और उनकी तरह बड़ी निपुणता से हिंदू दिवसों, तीज-त्योहारों आदि जैसे विशेष दिनों की गणना नहीं कर पाता हूँ; पर, उनके संस्कार तो मुझमें विद्यमान हैं ही। मैं भी शिव-भक्त हूँ और आज भले ही अनेकानेक दुर्दांत संघर्षों के बाद असफलताओं से ऊबकर भगवान की न्याय-व्यवस्था को कोसने लगता हूँ, पर पूजा-अर्चना तो ज़रूर करता हूँ।

चुनांचे, घर की माली हालत उतनी अच्छी नहीं थी, जितनी कि किसी खाते-पीते घर की होनी चाहिए। बस, बाबूजी के ज़्यादातर बेकारी के दिनों में येन-केन-प्रकारेण दो वक़्त की रोटी मिल जाया करती थी। कभी-कभार ऐसे भी दुर्दिन देखने को मिले कि बग़ैर चप्पल के नंगे पाँव ही रहना पड़ता था। कम कपड़ों की किल्लत झेलनी पड़ती थी। अम्मा अपनी पुरानी साड़ियों के नए से लगने वाले हिस्सों को काट-छांटकर मेरी नन्हीं-नन्हीं बहनों के लिए फ़्रॉक बनाया करती थीं और इकरंगी साड़ियों को काटकर हम लड़कों के लिए शर्ट-पैंट सिल दिया करती थीं। बहरहाल, अम्मा की तो तारीफ़ ही करनी चाहिए क्योंकि उनके द्वारा इस तरह सिले हुए हमारे वस्त्र बाजार के रेडीमेड कपड़ों से किसी भी प्रकार से कमतर नहीं होते थे। फिनिशिंग इतनी अच्छी होती थी कि पड़ोस की चाचियाँ अम्मा से पूछा करती थीं कि बच्चों के लिए ये कपड़े कहाँ से खरीदे हैं।

          तब, मैं अपने नगर के एक मिडिल स्कूल का छात्र हुआ करता था। कई-एक कारणों से जिनमें बाबूजी का बार-बार नौकरी बदलना या उनकी नौकरी में स्थानान्तरणों के कारण जो आर्थिक कठिनाइयाँ सामने आईं, उनके चलते प्राथमिक शिक्षा से वंचित होना पड़ा। बस, सीधे कोई टेस्ट देकर कक्षा आठ में दाख़िला मिल गया था। लेकिन, उन बातों से हम बच्चों को कुछ ख़ास तो लेना-देना होता नहीं; बस, क्षुधा शांत हो, सलीकेदार कपड़ों से शरीर ढंका हो और खेलने-कूदने में कोई बाधा न आए—हाँ, इतने से ही मतलब होता है।

स्कूल के उन्हीं दिनों में एक दिन मेरे साथ एक अज़ीब-सी घटना घटित हुई। अपनी दिनचर्या के अनुसार मैं अपने स्कूल में दोपहर के रेसस (मध्यांतर) में कलेवा करने के बाद, स्कूल के चौरस लॉन से बाहर आकर पास ही की एक मस्ज़िद की सीढ़ियों पर बैठ जाया करता था। यह मेरी दिनचर्या का एक अहम हिस्सा था। इसी तरह एक दिन जबकि मैं वहाँ बैठा धूप सेंक रहा था कि तभी एक ख़ास शक़्ल वाला आदमी मेरे सामने आकर खड़ा हो गया जिसे देख मैं किंचित घबड़ा-सा गया। वह आते ही मान न मान, मैं तेरा मेहमान की तर्ज़ पर, सवाल पर सवाल किए जा रहा था जबकि मैं उसे हकला-हकला कर ज़वाब देते हुए लगातार संदेह से देखता जा रहा था।

“तुम कहाँ पढ़ते हो?” उस लंबे-तगड़े, कोई साढ़े छः फुट की कद-काठी और अज़ीब-से हुलिया वाले आदमी ने जो बेशक मेरे शहर का नहीं लग रहा था, यह सवाल मुझसे पूछा।

      “यहीं पास वाले स्कूल में पढ़ता हूँ।” मैंने अपना सिर ऊँचा उठाकर भय, आश्चर्य और संदेह से उस लंबे-तगड़े आदमी को देखते हुए कंपकपाते स्वर में उत्तर दिया तो उसने बड़े स्नेह से मेरे सिर पर अपने दोनों हाथ फेरकर मेरा हौसला बढ़ाया। तभी उसके ऐसे आत्मीय व्यवहार से मेरे मन में एक आशंका-सी आई कि कहीं यह अज़नबी आदमी कोई लकड़सुंघवा तो नहीं है जो मुझे प्यार से बहका-फुसलाकर और मुझ पर मंत्र फूँककर मेरा अपहरण करना चाहता हो।

उस समय पूरे नगर में लकड़सुंघवा के अफ़वाह से आतंक का माहौल बना हुआ था। अधिकतर माँ-बाप अपने बच्चों को आवश्यक काम से ही बाहर भेजते थे; अन्यथा उन्हें अधिकतर घर में ही रहने की हिदायत देते थे। दरअसल, लकड़सुंघवा एक गिरोह का ऐसा छद्मवेशी मनुष्य होता था जिसके हाथ में कोई लकड़ी की चीज़ हुआ करती थी जैसेकि छड़ी, लाठी या लकड़ी का कोई टुकड़ा जिसे वह बाहर घूमते और खेलते-कूदते बालकों को सुंघाकर अपने वश में कर लेता था तथा उन पर सम्मोहिनी डालकर उन्हें अपने साथ लेता जाता था। हाँ, ऐसा-ही अफ़वाह फैला हुआ था। उस समय जब भी नगर में कोई बच्चा ग़ायब होता तो यह आशंका जताई जाती की कोई लकड़सुंघवा ही उसे उठाकर ले गया होगा। पर, लकड़सुंघवा तो सिर्फ़ अफ़वाहों की उपज था; उसे किसी ने कहीं भी नहीं देखा था। वह अफ़वाह बिलाशक किसी देहात से उठा होगा और फिर शहर में फैल गया होगा। वास्तव में, जो बच्चे ग़ायब होते रहे हैं, उनका अपहरण असामाजिक तत्वों ने ही अपने निजी स्वार्थों के लिए किया होगा। ऐसा भी अनुमान है कि साधु-फकीर ऐसे बच्चों को अपने साथ ले जाकर उनसे अपनी सेवा-सुश्रुषा कराते थे।

तदनंतर उसने फिर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “परंतु बेटा, तुम इस मस्ज़िद की सीढ़ी पर क्यों बैठे हुए हो? उठो, अपनी कक्षा में जाकर अच्छे परीक्षा-परिणाम के लिए अपने पाठ दोहराओ।”

उसके इस तरह दोबारा मेरे सिर को सहलाए जाने के कारण भय से मेरे रोएं खड़े हो गए। पर, उसका ऐसा सबक सुनकर, उसमें मेरी जिज्ञासा बेतहाशा बढ़ गई। यों तो, अपने संकोची स्वभाव के कारण अधिकतर चुप रहना ही मेरी आदत थी। पर, मेरे चंचल मन ने मुझे उकसाया—इस अज़नबी को यूं ही मत जाने देना। इसके बारे में सारी जानकारी ले लो, वरना अम्मा पूछेगी तो क्या ज़वाब दोगे?

निःसंदेह, अम्मा ने मुझे कई बार हिदायत दी थी कि समय बहुत खराब चल रहा है और इलाके के तुम जैसे बच्चे ग़ायब हो रहे हैं। इसलिए ज़्यादातर बाहर निकलने से बचना और किसी अपरचित आदमी से न कुछ लेना, न कुछ देना। अगर कोई ऐसा व्यक्ति तुम्हें कहीं अपने साथ ले जाना चाहे तो साफ मना कर देना। तुमसे कुछ बातें करे तो कोई ज़वाब दिए बिना भाग जाना। बेशक, उस समय अम्मा भी लकड़सुंघवा के संबंध में उठ रहे अफ़वाहों से बेहद डरी-सहमी रहा करती थीं जबकि ज़िंदग़ी की क्रूरताओं को झेलने के बाद वह इतनी यथार्थवादी हो गई थीं कि उन्हें ऐसी बातों पर कम ही यकीन होता था। लेकिन, उनकी ममता जो थी कि हमेशा अपने बच्चे को महफ़ूज़ देखना चाहती थी।

इसलिए, मैंने उस लंबे-चौड़े और बड़ी-बड़ी, झक्क काली मूँछों वाले आदमी से पूछा, “आप कौन हैं और मुझसे ही ऐसे सवाल क्यों कर रहे हैं? उधर सामने मेरे जैसे और भी तो बच्चे खेल-कूद रहे हैं।” मुझे याद है कि मेरे यही शब्द थे जिनमें बचकानापन कम, सयानापन ज़्यादा था।

पर, मैं उसके व्यवहार को देखकर दंग हो रहा था। उसने रामलीला में रावण की भूमिका निभाने वाले पात्र की तरह अपने कंधे झुलाते हुए और अट्टहास करते हुए कहा, “बेटा, आपको मैंने किसी रामलीला में भरत और लक्ष्मण की भूमिकाओं में देखा है। आप इन पौराणिक पात्रों की अच्छी भूमिकाएँ कर लेते हैं। तभी तो आपको यहाँ देखकर मैं झट पहचान गया और आपके पास आ गया। आप एक होनहार बच्चे हैं; मैं चाहता हूँ कि आप पढ़-लिख कर बड़े आदमी बनें और अपने माता-पिता का नाम ऊँचा करें।”

पर, मुझ जैसा बालक उसके ज़वाब से कहाँ संतुष्ट होने वाला था? बालक तो था मैं, पर उसके लल्लो-चप्पो में कहाँ आने वाला था क्योंकि अम्मा की हिदायतें बार-बार मेरे कानों में कौंध रही थीं? सो, मैं फिर बोला, “आप लकड़सुंघवा तो हो ही नहीं सकते। आप सज्जन आदमी हैं और मेरी प्यारी अम्मा की तरह मुझे सलाह दे रहे हैं। लेकिन, मैंने आपको आज के पहले कहीं नहीं देखा है। क्या आप इसी शहर में रहते हैं?”

वह फिर ठठाकर हँसते हुए बोला, “बच्चे, मैं तो तुम्हारा ही क्या, समस्त आर्यावर्त के बच्चे-बच्चे का कल्याण चाहता हूँ। बहरहाल, मैं यहीं रहता हूँ। तुम जब भी मेरा ख़्याल अपने मन में लाओगे, मुझे अपने आसपास ही पाओगे।”

“आप तो जैसे पहेली बुझा रहे हैं। ऐसे बोल रहे हैं जैसेकि आप भगवान हैं और हम जैसे ही आपका ध्यान करेंगे, आप प्रकट हो जाएंगे।”

तब उसने झुकते हुए मेरी आँखों में आँखें डालकर कहा, “बालक, कुछ ऐसा ही समझो।” तब वह फिर दहाड़ें मारकर हँसने लगा।

“मुझे आपसे डर लग रहा है।” मैं उससे हटकर दूर खड़ा हो गया।

“हाँ, लेकिन तुम्हें मुझसे डरना नहीं चाहिए। मेरे कहने का आशय यह है कि मैं तुम जैसे अच्छे बच्चों से मिलता रहता हूँ। मुझे बहुत खुशी होती है।”

“अच्छा,” मैं आश्चर्य से कुछ भी नहीं बोल सका।

उसने कहा, “बच्चे, तुमसे फिर मिलता हूँ। अभी तुम्हारा नाम तक नहीं पूछा। अगली बार, नाम भी पूछूंगा और बहुत बातें भी करूंगा। अभी तो मुझे श्री महादेव जी बुला रहे हैं।”

उस जमाने में जबकि सूचना पाने का मोबाइल जैसा कोई भी माध्यम नहीं हुआ करता था, उसने पलभर के लिए आँखें ऐसे बंद कीं, जैसेकि उसके मन से कोई सूचना मिली हो कि कहाँ हो, आ जाओ। तब वह तेजी से वापस जाने लगा तो मैं चिल्ला पड़ा, “ये महादेव जी कौन हैं? क्या आप जहाँ काम करते हैं, वहाँ के कोई अफ़सर हैं?”

तब वह पलटकर सिर्फ़ मुस्कराया। हाँ, कोई उत्तर देने के बजाय अपने दुधिया हाथों को लहराते हुए और लंबे-लंबे डग भरते हुए बहुत ज़ल्दी कहाँ निकल गया, मुझे इसका पता ही नहीं चला।

लेकिन, मैं कई दिनों तक आश्चर्य में डूबा रहा। उस दिन घर आकर जब मैंने अम्मा को उसके बारे में बतलाया तो उन्हें मुझ पर विश्वास ही नहीं हुआ। वह मुस्कराकर रह गईं और अपने काम में व्यस्त हो गईं। शायद, उन्होंने सोचा होगा कि बच्चा होने के कारण ही मैं कोई मनगढ़ंत बात बनाकर कह रहा हूँगा। वह सोच रही थी कि असलियत में मेरी किसी ऐसे आदमी से मुलाक़ात हुई ही नहीं होगी। तब अम्मा ने बड़े प्यार से मेरा सिर सहलाते हुए मुझे खाने को परांठे और अचार दिए।

उस दिन के बाद से मैं रोज़ स्कूल में रेसस के बाद उसी मस्ज़िद की सीढ़ियों पर बैठकर उसका इंतज़ार करता रहता था। पर, रोज़ निराशा ही हाथ लग रही थी। मुझे याद है कि कुछ दिन और कुछ सप्ताह ही नहीं बीते होंगे; बल्कि कुछ महीने भी गुज़र गए होंगे क्योंकि छमाही और सालाना परीक्षाएँ भी समाप्त हो गई थीं और इंतज़ार था तो परीक्षा के परिणाम का। पर, इतने दिनों के बाद भी वह अज़ीब आदमी नज़र नहीं आया। शायद, वह कोई बाहर से इस शहर में आया हुआ आदमी रहा होगा और अपने काम को अंज़ाम देने के बाद वापस चला गया होगा।

      तब वह दिन भी आ गया जबकि हम बच्चों को अपना-अपना रिज़ल्ट मिलने वाला था। लेकिन, उस दिन जब मैं रिज़ल्ट लेने स्कूल जा रहा था तो मेरे ख़्याल में उस दिन वाला वही आदमी बार-बार घूम रहा था। निःसंदेह, वह कोई ख़ास दिन था क्योंकि मुझे जितनी बेताबी अपनी परीक्षा का परिणाम जानने की नहीं हो रही थी, उससे ज़्यादा बेचैनी उस आदमी को याद करके हो रही थी जो दिमाग़ में रह-रहकर घूम रहा था। मैं स्कूल गया और वहाँ से अपना रिज़ल्ट लेकर उसी मस्ज़िद की सीढ़ियों पर आकर बैठ गया और अपना रेज़ल्ट देखने लगा। सभी विषयों में अच्छे नंबर आए थे; पर, कला और भाषा के विषयों में शत-प्रतिशत नंबर मिले थे। तदनंतर, जब मैं वहाँ से उठने को हुआ तो मेरा सिर अपने पीछे खड़े किसी आदमी की दाढ़ से टकरा गया। दरअसल, उस दिन वाला वही भारी-भरकम डील-डौल वाला आदमी मेरे पीछे झुककर मेरा रेज़ल्ट देख रहा था।

मैं उसे देख, कुछ पल तक अवाक रहा फिर मचलकर बोल पड़ा, “अरे, आप कब आए? मैं तो उस दिन के बाद से लगातार आपका इंतज़ार करता रहा हूँ। मैं अधिकतर आपके बारे में सोच-सोच कर खोया हुआ रहता था। आप तो कहते थे कि आप मेरे आसपास ही रहेंगे; पर मैंने तो हर गली-कूचे में आपको ढूंढा, आप कहीं नहीं मिले।”

मेरे शिकायताना अंदाज़ पर वह लगभग अफ़सोस ही कर रहा था जैसाकि उसके हावभाव से लग रहा था। परंतु, अगले ही पल, वह मुस्कराते हुए बोला, “बच्चे, मैं अति आवश्यक कार्यों में व्यस्त था। मेरा अफ़सर प्रति दिन कोई-न-कोई नया काम सौप दिया करता था। अब यह बताओ कि मैं उसकी अवज्ञा कैसे करता? उसके काम नहीं करता तो वह तो मुझे नौकरी से निकाल देता।”

“हाँ, चाचाजी, आप सही कह रहे हैं।” मैंने प्रथम बार उसे चाचा कहा तो वह बड़ी आत्मीयता से मुस्कराया।

तदनंतर, वह मेरा हाथ पकड़कर सड़क पर आ गया। निःसंदेह, तब उससे मुझे किंचित भय नहीं लग रहा था। उसने मेरी प्रशंसा की, “नवल, तुम्हारा परीक्षा-परिणाम तो बहुत अच्छा है। अब बताओ, तुम्हें किस तरह से पुरस्कृत करूँ? बस, हृदय से आशीष दे रहा हूँ कि जीवन की सभी परीक्षाओं में तुम सफल होकर नए-नए कीर्तिमान बनाते रहो।”

भावावेश में आकर मैंने उनके पैर छुए तो उन्होंने अपनी दोनों बड़ी-बड़ी हथेलियाँ मेरे सिर पर रखकर दिल से आशीर्वाद दिया।

फिर, वे स्वयं ही बोले, “क्या तुम्हें आश्चर्य नहीं हुआ जबकि मैंने तुम्हें तुम्हारे नाम से संबोधित किया?”

“नहीं, बिल्कुल नहीं।”

“क्यों?”

“क्योंकि आपने मेरा नाम तो मेरा रेज़ल्ट देखते हुए पढ़ लिया था।”

“तुम तेज मेधा वाले बच्चे हो,” वह जोर से हँसा।

लेकिन, जब वह हँस रहा था तो मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। उसकी प्रशंसा सुनकर खुश भी नहीं हुआ।

तब उसने अपने हाथ से मेरा सिर सहलाते हुए मेरी ओर देखा तो मैं बोल पड़ा, “उस दिन आपसे मुलाकात के बाद जब मैंने घर पर आपके बारे में अपनी अम्मा को बताया तो उन्हें मेरी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ। पर, मैं सच कह रहा हूँ, मुझे आप बिल्कुल अलग किस्म के आदमी लग रहे हैं।”

“पर, मुझमें कोई ऐसी विचित्र बात तो है नहीं जिस पर तुम्हारी अम्मा को विश्वास न हो। अच्छा, एक दिन मैं तुम्हारे घर अम्मा से मिलने आऊँगा। सच कहूँ, मुझे देखकर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं होगा। उन्हें मैं साधारण आदमी जैसा ही लगूंगा। आख़िर, मुझमें ऐसी कोई विशेष बात तो है नहीं जो किसी को आश्चर्य में डाल दे। वास्तव में, अभी तुम बच्चे हो; तुम्हें नाना प्रकार के मनुष्यों से मिलने का अनुभव नहीं है। इस दुनिया में जितने लोग है, उतना ही उनमें अंतर है। हर मनुष्य भिन्न है। विधाता ने अगर हम सभी को एक जैसा बनाया होता तो पता है क्या होता?”

“क्या होता?”

“बड़ी जटिलताएँ पैदा हो जातीं। यह संसार विभिन्नताओं और विषमताओं से भरा हुआ है जिन्हें हम हल्के में लेते हैं। वस्तुतः ये विभिन्नताओं के पीछे बहुत बड़ा रहस्य छिपा हुआ है। वास्तव में, इन भिन्न-भिन्न व्यक्तियों, वस्तुओं और व्यवस्थाओं में रहते हुए ही मनुष्य को सच्चा सुख मिल पाता है।”

वह बोलता जा रहा था और मैं सुनता, जबकि उसकी ज़्यादातर बातें मेरे सिर के ऊपर से निकल जा रही थी। पर, मैं सोच रहा था कि उसकी बातें बाबूजी की बातों जैसी थीं जो मेरी समझ से परे रहती थीं। आख़िर में, वह बकबक करते हुए स्वयं ही ऊबने लगा। फिर बोला, “अरे, तुमसे बातें करते हुए तो समय का पता ही नहीं चला। चलो, मैं फिर मिलता हूँ।”

मैंने कहा, “चाचाजी, ज़ल्दी मिलिएगा। हाँ, अम्मा के पास आकर अपने बारे में बताइएगा। वैसे तो, मैं फिर आज उन्हें आपके बारे में फिर बताऊँगा। यह भी बताऊँगा कि आपसे मेरी दूसरी बार मुलाकात हुई है।”

लेकिन, उनके जाने के बाद, मेरे मन में एक बात उठ रही थी कि आख़िर ये नए चाचा मेरे घर आएंगे कैसे; उन्होंने तो मेरे घर का पता तक नहीं पूछा। तब, मैं मायूस हो गया क्योंकि मैं समझ गया था कि अब आइंदा उनसे मुलाकात नहीं होने वाली है। बहुत ज़ल्दी बाबूजी के ट्रांसफर के बाद यह शहर भी छोड़ना पड़ेगा, जैसीकि संभावना थी।

 

 

लेखक का जीवन-चरित                                              

 

पिता: (स्वर्गीय) श्री एल.पी. श्रीवास्तव,

माता: (स्वर्गीया) श्रीमती विद्या श्रीवास्तव

जन्म-स्थान: वाराणसी, (उ.प्र.)

शिक्षा: जौनपुर, बलिया और वाराणसी से (कतिपय अपरिहार्य कारणों से प्रारम्भिक शिक्षा से वंचित रहे) 1- मिडिल हाई स्कूल--जौनपुर से 2- हाई स्कूल, इंटर मीडिएट और स्नातक बलिया से 3- स्नातकोत्तर और पीएच.डी. (अंग्रेज़ी साहित्य में) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से; 4-अनुवाद में डिप्लोमा केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो से

पीएच.डी. का विषय: यूजीन ओ' नील्स प्लेज़: अ स्टडी इन दि ओरिएंटल स्ट्रेन

लिखी गईं पुस्तकें: 

1-पगडंडियां (काव्य संग्रह), वर्ष 2000, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 2-अक़्ल का फलसफा (व्यंग्य संग्रह), वर्ष 2004, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली; 3-अपूर्णा, श्री सुरेंद्र अरोड़ा के संपादन में कहानी का संकलन, 2005; 4- युगकथा, श्री कालीचरण प्रेमी द्वारा संपादित संग्रह में कहानी का संकलन, 2006; 5-चाहता हूँ पागल भीड़ (काव्य संग्रह), विद्याश्री पब्लिकेशंस, वाराणसी, वर्ष 2010, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 6-धर्मचक्र राजचक्र, (कहानी संग्रह), वर्ष 2008, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 7 -पगली का इंक़लाब (कहानी संग्रह), वर्ष 2009, पाण्डुलिपि प्रकाशन, न.दि.; 8- मुखाग्नि  (कहानी संग्रह), पूनम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, 2020 ; 9-प्रेमदंश, (कहानी संग्रह), वर्ष 2016, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 10- अदमहा (नाटकों का संग्रह) ऑनलाइन गाथा, 2014; 11-मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में राजभाषा (राजभाषा हिंदी पर केंद्रित)12- दूसरे अंग्रेज़ (उपन्यास)13- संतगिरी (कहानी संग्रह), अनीता प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, 2017; 14-उस दौर से इस दौर तक (उपन्यास) पूनम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, 2018; 15- महापुरुषों का बचपन (बाल नाटिकाओं का संग्रह) पूनम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, 2018; 16- चलोरेत निचोड़ी जाएनमन प्रकाशन2018 (साझा काव्य संग्रह); 17 -डेविल फ्रोम चाइना (बच्चों के लिए अंगेजी उपन्यास); 18-रावण उदास है (उपन्यास); 19-साझा कहानी-संग्रह कथा संचय में कहानी, 20-साझा काव्य संग्रह काव्य अमृत में गज़लें, 21- सुरेंद्र अरोड़ा द्वारा संपादित साझा कहानी-संग्रह "बेबसी" में कहानी, 22-सुधा ओम  ढींगरा  और लालित्य ललित द्वारा संपादित निबंध-संग्रह सार्थक व्यंग्य का यात्री: प्रेम जनमेजय में निबंध आदि 

संप्रति : केंद्र सरकार में वरिष्ठ अधिकारी

मोबा. 9910360249/ drmanojs5@gmail.com

 

न्यूज़ सोर्स : Literary Desk--wewitness mag.