आजकल दीन-दुनिया की किस्मत के सितारे बुलंद करने वाले बाबा घटानन्द के सितारे डूबते-से नज़र आ रहे हैं। उनकी जीवन-नइया संसार के भव-सागर के बीचो-बीच हिचकोले खा रही है। घटनाक्रम में इतनी तेजी से बदलाव आया है कि जहाँ घटानन्द की सत्संग सभाओं में श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ पड़ता था और सड़कों पर जाम लग जाता था, वहीं अब उनके खिलाफ़ आक्रोश की बयार बह रही है। जेठ माह में जंगल में धूँ-धूँ कर फैल रहे भयंकर दावानल की तरह उनके विरोध में अफ़वाहों का बवंडर उमड़ता ही जा रहा है। उन्हें चौबीस में से अठारह घंटे तक रोज खुफ़िया पूछताछ के चक्र से गुजरना पड़ रहा है। जाँच एजेंसियाँ बता रही हैं कि चूँकि घटानन्द झूठ पर झूठ बोल रहा है और सारे दस्तावेज़ जाली पेश कर रहा है, इसलिए उसका नारको टेस्ट भी कराया जाएगा। बहरहाल, पहले तो घटानन्द पर रेप के ही मुकदमे चल रहे थे; लेकिन, अब कई हत्याओं के ज़ुर्म में भी उनकी लिप्तता जग-जाहिर हो गई है। कुछ युवतियों के अपहरण के बाद उनके लापता होने में उनका हाथ बताया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि उनकी निकट सहयोगी रह चुकी साध्वी सत्यबाला सरकारी मुखबिर बन गई है और यह दावा कर रही है कि उन लापता युवतियों की हत्या खुद घटानन्द ने ही करवाई है क्योंकि बाबा को उनसे डर था कि वे उनकी मानव तस्करी के नेटवर्क का भांडाफोड़ कर देंगी। पुलिस ने सत्यबाला की निशानदेही पर सात स्त्रियों के कंकाल भी बरामद किए हैं और उन अड्डों को सीज़ कर दिया है जहाँ अपहृत बच्चों और लड़कियों को नज़रबंद रखा जाता था। सत्यबाला ने वे कागज़ात भी जाँच एजेंसियों के सुपुर्द कर दिए हैं जिनसे यह साबित होता है कि बाबा के नेटवर्क का विस्तार विदेशों में भी था।

सो, बिचारे घटानन्द के ख़िलाफ़ एक से बढ़कर एक  कहानियाँ गढ़ी गई हैं। ये सारा करामात है मीडियावालॊं का। बेहद दिलचस्प कहानियाँ गढ़ने में उनका जवाब नहीं। वे जिसे चाहें जब पलक झपकते एवरेस्ट पर बैठा देते हैं और जब चाहें, उसे वहाँ से धकेलकर नीचे रसातल में पहुँचा देते हैं। वे बेकुसूरों को भी किसी तरह से बख़्शने से बाज नहीं आ रहे हैं। श्रद्धालुजन तो कहते हैं कि घटानन्द आसमान से आए परमात्मा के साक्षात अवतार हैं। जबकि मीडिया वाले बता रहे हैं कि वह एक ठेकेवाले की संतान हैं और लड़कपन में वह अपने बाप के अवैध ठेके पर शराबियों को दारू परोसने का काम करते थे।

यह सब देख-सुनकर महंत बैकुंठनाथ इस तरह तिलमिला रहे हैं जैसेकि कोई बर्र उनके कुर्ते में घुसकर उन्हें बार-बार डंक मार रहा हो। पहले वह मंदिर में अपनी आसनी पर बैठे बेचैनी में अपना सिर खुजलाते रहे; जब मगज़मारी करते हुए उनका सिर फटने लगा तो वह खड़े होकर अपना हाथ-पैर पटकते हुए और नन्हकू को गुहारते हुए मंदिर से बाहर निकल आए, "नन्हकुआ, तनिक मंदिर में चौकसी रखना। हम चाय पीके आते हैं।"

जब बैकुंठनाथ किसी चंचल मनःस्थिति में होते हैं तो वह भोला चायवाले की दुकान पर मज़मा लगाकर जम जाते हैं। यह उनका और उनके भक्तजनों की बहसा-बहसी का मुकम्मल अड्डा है।

दुकान में कदम रखने से पहले ही उन्हें मुंशी ईश्वरचंद मिल गए, "महंत जी! चलिए, हमें भी चाय की तलब लग रही है।"

बैकुंठनाथ और ईश्वरचंद के बीच इतनी छनती है कि जिसे देखो, वही दोनों को लंगोटिया यार पुकारता है।

जैसे ही बैकुंठनाथ बेंच पर विराजमान हुए, भोला चायवाले ने उन्हें चाय का कुल्हड़ थमाया। पर, बेचैनी उनके माथे पर पड़ने वाले बलों से साफ झलक रही थी--जैसेकि वह खुद घटानन्द हों और अपने ऊपर लगाए जाने वाले सारे ऊल-जुलूल आरोपों ने उनका जीना हराम कर दिया हो। वह अपने-आप से बड़बड़ा उठे, "तौबा-तौबा! इन पुण्यात्मा महात्माओं से डाह करके इन मीडिया-वालों को पता नहीं क्या मिलता है? उन्हें बेवज़ह बदनाम करके क्या हासिल होने वाला है? भला, दारू परोसने वाला लौंडा इतना बड़ा संत कैसे बन सकता है?"

उन्होंने चाय की चुस्की इतनी तेज ली कि वहाँ बैठे सारे लोग उनकी तरफ़ मुखातिब हो गए।

मुंशी ईश्वरचंद भी उनके सामने वाली बेंच पर बैठते हुए उनसे बतकही करने के मूड में आ गए। चाय के कप को होठ से लगाते हुए भावुक हो उठे, "अरे महंत जी! दूरदर्शन वाले तो और बढ़-चढ़कर अफ़साने गढ़ रहे हैं। कह रहे हैं कि बाबा घटानन्द के नाम से विख्यात पाखंडी बाबा दरअसल, बचपन में अपने बाप के ठेके पर दारू तो परोसता ही था; बड़ा होकर, वह प्रोपर्टी डीलिंग के धंधे में लग गया जहाँ उसने अपने ही सगे भाई की हत्या कर उसकी सारी जमीन-ज़ायदाद हड़प ली। कुछ सालों बाद, जब उसे अपनी बुरी लत के कारण उस धंधे में घाटा हुआ तो वह उसे तिलांजलि देकर गुरुदासपुर से कलकत्ता भाग गया जहाँ वह दाढ़ी-मूँछ बढ़ाकर और गेरुआ लबादा पहनकर बाबा घटानन्द के रूप में भोली-भाली जनता का चहेता बन गया, फिर पूरे देश-विदेश में मकबूल हो गया।"

वह अपना कप मेज पर रखकर चाय से गीली हुई मूँछों के बालों को सहलाने लगे।

बैकुंठनाथ अपनी आँखें गोल-गोल नचाते हुए ऐलानिया लहजे में बेंचों पर चाय सुड़क रहे लोगों से बोल उठे, "अब आप ही लोग बताएं, धर्म-दर्शन में पांडित्य रखने वाला इन्सान अगर किसी इतने गलीच खानदान से वास्ता रखता होता तो वह इतनी बड़ी-बड़ी आदर्शवादी बातें कैसे करता? जनता का मार्गदर्शन कैसे करता? अब बाबा घटानन्द द्वारा स्त्रियों से व्यभिचार किए जाने का अफ़वाह तो गले से नीचे ही नहीं उतरता..."

जैसे ही लोगों ने उनकी हाँ में हाँ मिलाकर उनकी हौसला आफ़जाई की, उनकी आवाज़ और बुलंद हो गई, "बेशक! आजकल बतरस को जायकेदार बनाने के लिए मीडियावालों को कोई गरम मसाला नहीं मिल रहा है तो बस, बाबा घटानन्द को ही सेक्स स्कैंडल में लपेट रहे हैं। अरे, ये भी कोई बात हुई? घटानन्द के अंधभक्त कह रहे हैं कि यह सब संतों को बदनाम करने और सियासी फ़ायदा उठाने के वास्ते नेताओं द्वारा अपनाया जाने वाला हथकंडा है..."

जब इतने जोर-शोर से टी.वी.-रेडियो से लेकर अख़बारों तक अफ़वाहों का बाज़ार गर्म है तो ख़ासतौर से कालोनियों और मोहल्लों में जनाना चौपाल चलाने वाली औरतों में बाबा घटानन्द के प्रति श्रद्धा-भाव में मंदी आना लाज़मी है। ऐसा लगता है कि बाबा के बलबूते पर ही इस देश में सारे धर्म-कर्म चल रहे थे। पर, उनके पुलिस की गिरफ़्त में आने और उन पर ख़ुफ़िया जाँच बैठाए जाने के बाद तो ग़ज़ब ही हो गया है। चौराहों, प्लेटफार्मों, स्टेशनों आदि पर लगे बाबा के पम्फ़लेट, बैनर और तस्वीरें फाड़ डाली गईं। स्कूलों और कालेजों में खूब तोड़-फोड़ हुई। जगह-जगह बाबा के पुतले जलाए गए और राजभवनों के सामने बाबा को सख़्त से सख़्त सज़ा दिलाने की मांग को लेकर नारेबाजी-हुड़दंगबाजी की गई। हैरतअंगेज़ बात ये है कि जो जनानियाँ बाबा की गिरफ़्तारी से ठीक पहले तक उनकी धर्म-सभाओं में बड़े श्रद्धा-भाव से शामिल हुआ करती थीं, वे ही अब उन पर इल्ज़ाम लगा रही हैं कि बाबा घटानन्द संत नहीं, दैत्य है और उसने उनका बलात्कार किया है--बाक़ायदा धर्म और भगवान का भय दिखाकर। उनके राजी न होने पर नशीली गोलियाँ खिलाकर--बेहोशी की हालत में। या कुछ इस तरह बहला-फ़ुसलाकर कि बाबा साक्षात भगवान के अवतार हैं, परमात्मा हैं और उन्हें अपना सर्वस्व अर्पित करके ही सारी मनोकामनाएं पूरी होंगी, मोक्ष मिलेगा, सारे इहलौकिक-पारलौकिक इच्छाएं पूरी होंगी, आदि, आदि।

सो, अब बाबा के ख़िलाफ़ जहाँ काशी, प्रयाग, पांडिचेरी और अयोध्या में सत्संग की धूम मची हुई थी, वहीं वहाँ के न्यायालयों में उनके ख़िलाफ़ कई रेप-केस चल रहे हैं। दूरदर्शन के न्यूज़ चैनल पर पत्रकार चौरसिया ने बाबा के व्यभिचार की शिकार औरतों के बारे में एक ख़ास रपट तैयार किया है जिसका लब्बो-लुबाब यह है कि सत्संग में आई जनानियों में से सबसे ख़ूबसूरत और जवान औरत को बाबा लुभावने सपने दिखाकर अपने जाल में फँसाता था और फिर उसके साथ रंगरलियाँ मनाता था--अपने ख़ास ढंग से तैयार किए गए रनिवास में जिसमें मौज-मस्ती के सारे सामान मौज़ूद थे, मसलन--विलास-कक्ष, स्वीमिंग पूल,  हरित विहार, झूले वग़ैरह। अस्सी साल की उम्र में अपनी मर्दानगी को बरकरार रखने के लिए उसने महंगी से महंगी देशी-विदेशी औषधियों का ज़खीरा इकट्ठा कर रखा था और जब कोई स्त्री उससे गर्भवती हो जाती थी तो उसका गर्भपात कराने के लिए उसके आश्रम में ही पूरी व्यवस्था थी, आदि-आदि...

 

काफ़ी देर तक भोला चायवाले की दुकान पर बकवासबाजी करने के बावज़ूद बैकुंठनाथ की भभकती भड़ांस ठंडी नहीं पड़ी। वापस मठ में आकर उन्होंने ठाकुरजी की मूर्ति को बार-बार शिकायताना अंदाज़ में देखा, फिर बड़े बेमन से मनन करने लगे, 'भगवन, अब तो तुम्हारे अस्तित्व पर हमें पूरा संशय होने लगा है। बहरहाल, अगर तुम्हारे अंदर कोई शक्ति हो तो एक चमत्कार कर दिखाओ। यानी बाबा घटानन्द का गुड़गोबर होने से बचा लो; वरना, बहुत बुरा हो जाएगा। हम भक्तों का क्या होगा, हमारे धरम-करम का क्या होगा...'

वह कुछ क्षण तक आँख मूँदकर याचना करते रहे; फिर, ध्यान-कक्ष में चले गए, नन्हकू को कुछ हिदायतें देते हुए, "नन्हकुआ, हम मनका थामके ठाकुरजी का जाप करने बैठ रहे हैं। कोई भगत झाड़-फूँक कराने आए तो कह देना कि महराजजी ध्यान लगाए बैठे हैं, बाद में आना..."

हुकुम बजाने की मुद्रा में जैसे ही नन्हकू कान खुजलाते हुए मंदिर के द्वार पर खड़ा हुआ, सामने से आ रही मालती की गुनगुनाती आवाज़ सुनकर उसकी बाँछें खिल गईं। पर, अगले ही पल उसके मन में मनहूसियत छा गई। वह मन ही मन भुनभुनाने लगा, 'अब तो बाबा बिस्वामित्र का जी ध्यान-मनन, जप-तप में एकदम्मे नहीं लगेगा, ई जो मेनका आ गई है...।'

तो भी, उसने मालती की गदराई जवानी का आँखों ही आँखों में सांगोपांग आस्वादन किया। उसका जी कर रहा था कि वह उसका मुंह जोर से दबाकर परिक्रमा वाले अंधे गलियारे में ले जाय और वहाँ तब तक घंटों दुबका रहे, जब तक कि उसका ज़िस्मानी खुमार उतर न जाय। पर, अपने गले में पड़ी कंठी-माला को देख और कंधे से लटकते जनेऊ को लगभग निकाल फेंकने के अंदाज़ में अपने उत्तेजित हाथों को नियंत्रित करते हुए जैसे ही यह कहने जा रहा था कि 'मालती, महराज जी आज की साँझ, किसी से नहीं मिलेंगे क्योंकि वह बाबा घटानन्द के लिए भगवान से दुआ मांग रहे हैं', तभी ध्यान-कक्ष से बाबा बैंकुंठनाथ के खाँसने की आवाज़ सुनकर वह डर के मारे सिहर उठा। यों तो वह उनका चेला है; पर, वह मालती के साथ बेलौस हँसी-ठिठोली और कोई बेजा हरकत कैसे कर सकता है जबकि उसे एक बार ऐसी ही ढिठाई करते हुए देख, वह ज्वालामुखी-सरीखा फट पड़े थे, "बकचोदा, तनिक अपना ओहदा-औकात का भी तो खयाल रखा कर। मालती सरीखी भगतिनियों संग ऐसे मत बतिया जैसे कि ऊ तेरी सरहज-साली हैं। तूं अगर ऐसी हरक़त करेगा तो मंदिर में भगतिनियों का आना-जाना भी बंद हो जाएगा। मतलब ये कि जिस मठ-मंदिर में जनानियों का आना-जाना नहीं होता, वहाँ भूतवास होने लगता है। सारा साधु-समाज बदनाम हो जाएगा...।" तब मालती के जाने के बाद, बैंकुंठनाथ ने उसकी लात-घूंसों से जो धुनाई की थी, वह उसे कैसे भूल सकता है? जैसेकि कोई जबर कुत्ता अपने शिकार पर किसी और कुत्ते द्वारा आँख गड़ाए जाने पर काट-खाने को झौंझिया उठता है।

बाबा बैंकुंठनाथ के बार-बार खाँसने का मतलब वह भली-भाँति समझ गया कि बाबा की छठी इंद्रिय मालती के आने की आहट भाँप चुकी है और उससे मिलने की बेताबी में उनकी लंगोट ढीली पड़ती जा रही है। इसलिए, उसने मालती को देख, अपने ओठों पर जीभ लिसोढ़ते हुए, ध्यान-कक्ष की ओर इशारा कर दिया। वह भुनभुनाने लगा, 'बाबा का अद्वैतवाद अब कुछ ही मिनट में द्वैतवाद में तब्दील होने वाला है। स्साला, घटानन्द का पड़दादा है--नंबर एक का पाखंडी है...'

इधर मालती ने मठ में कदम रखा, उधर बाबा का ध्यान भंग हो गया। वह मनका और झोली को आसनी पर फेंक, बाहर आ गए। उन्होंने मालती के पास खड़े नन्हकू को तरेरकर देखा तो वह भागकर अंधेरे में दुबकने लगा। तभी वह हुक्मराना अंदाज़ में बोल उठे, "नन्हकुआ, तनिक अपने काम-काज में जी लगा, नहीं तो हम तुम्हारा कान उमेठके बाहर खदेड़ देंगे! ई हरामखोरी से वंचित कर देंगे। देख, कितना अन्हियारा पसर गया है! जा, भागके गौरी (गाय) को सानी-पानी लगा दे और उसका दूध दूह के ठाकुर जी की आरती-भोग की तैयारी कर ले। हाँ, रसोई के चबूतरे पर बैठके भाजी मनिया कर (काट) ले। तनिक इस बात का खयाल करना कि कोई भगत ध्यानकक्ष में न आ जाय। आज इस भगतिन (मालती) के साथ कर्मकांड करना है। इसमें बहुत टाइम लगेगा। बिचारी अपने लफ़ंगे मनसेधू (पति) की बेवफ़ाई से बहुत तंग आ गई है।"

नन्हकू खुद से भुनभुनाने लगा, "एक तो हरामी घटानन्द मेहरारुओं संग कर्मकांड करता था और एक ये बैकुंठनाथ करता है। क्या कर्मकांड सिरफ़ औरतों संग ही होता है? स्साला आठो पहर मेहरारुओं से घिरा रहता है। मर्दों संग बैठने से कैसे कतराता है? अब हमें भी तुम जनों से खूब सबक मिल रहा है। हम भी साधू बनके मौज उड़ाने का कोई जुगत करेंगे। शालिग्राम की सौंगंध, हम भी अब कर्मकांड करके अपनी किस्मत चमकाएंगे..."

 

सबेरे जब बैकुंठनाथ की आँखें खुलीं तो वह सीधे मंदिर के प्रवेश-द्वार पर आ खड़े हुए। पर, वह एकदम से ठिठक गए क्योंकि एक बिलरे ने अपने जबड़े में चूहा दबाए हुए उनका रास्ता काट दिया था। वह बड़बड़ा उठे, 'दिन का लच्छन ठीक नहीं लग रहा है।' तभी नन्हकू पानी-भरा लोटा लेकर सामने आ गया, "महराज जी, हम सगरो झाड़ू-बहारू लगा दिए हैं। अब हम दातुन करके नहाने-धोने जा रहे हैं। उसके बाद ठाकुर जी और शालिग्राम जी का स्नान कराएंगे, भोग लगाएंगे और आरती की तैयारी करेंगे। तब से आप हाथ-मुँह धोकर आचमनिया कर लें। चाहें तो बगीचे में तनिक घूम-फिरकर अपना मन भी ताजा कर लें। तब तक हम सारे काम-काज से निपट लेंगे और फिर आपके वास्ते चाय-नास्ता तैयार करेंगे।"

बैकुंठनाथ ने नाक खोदकर नकटी निकालते हुए बुरा-सा मुँह बनाया। फिर, उसके हाथ से लोटा लेकर वह वहीं उकड़ूं बैठ गए और मुँह में पानी गुड़गुड़ाते हुए कुल्ला करने लगे। फिर, अचानक जैसेकि कुछ ज़रूरी काम याद आ गया हो, उन्होंने बड़ी फुर्ती से नित्य कर्म निपटाया। उसके बाद, झक्क उजली धोती और चटख छापेदार कुर्ता पहने, कंधे पर कंबल लटकाए कहीं जाने की उहापोह में नन्हकू को पुकारने लगे, "नन्हकुआ, सुन, अब चाय-नाश्ता जाने दे। आज रामलीला मैदान में सत्संग का आयोजन है। सत्संग के बाद वहीं शिवालय मठ में कुछ वैष्णव भगतों और भगतिनियों को कंठी-माला पहना के गुरुमंत्र देना है। संसार-भवसागर से लोगों को मुक्ति दिलाने का यह नेक काम हमारे सिवाय अब कौन कर पाएगा? देख ही रहे हो, अब संत-महात्माओं का कितना छीछालेदर हो रहा है। घोर कलियुग आ गया है।"

नन्हकू चाय का गिलास हाथ में लिए उनका भाषण सुन, मुँह ताकता रह गया क्योंकि बैकुंठनाथ उसे देख मुँह बिचकाते हुए तेजी से बाहर निकल गए थे। उसने एक लंबी राहत और चैन की साँस ली; फिर, बड़ी तसल्ली से गुदा खुजलाते हुए वापस आकर केले के पेड़ों की छाँव में बैठ गया। बैकुंठनाथ के जाने पर वह बड़े सुकून के मूड में है; अन्यथा, उनके द्वारा बात-बात में उसे झिड़का जाना उसे मन ही मन विद्रोही बना देता है--पता नहीं, वह उत्तेजना में क्या कर बैठे? वैसे भी वह सपेरे की पेटी में बंद बेबस नाग की तरह फ़ुफ़कार मारने के सिवाय कर ही क्या सकता है? वह कई बार उनके साथ सत्संग में भी जा चुका है। वहाँ जो घटनाएं घटती हैं, उनके बारे में सोच-सोचकर उसके मन में नाज़ायज़ ज़ज़्बात उफ़नने लगता है। यह पाखंडी बाबा सत्संग करने के बहाने क्या-क्या करता है--ये उससे नहीं छुपा है? उनकी हरक़तों की ख़ूब खुफ़ियागिरी की है। ध्यानकक्ष में मेहरारुओं संग कर्मकांड करने के नाम पर उनके द्वारा की जा रही हरकतों को उसने खिड़कियों के झरोखों से खूब देखा है। आज भी वहाँ वह मंच पर बैठकर धरम-पुराण तो कम बखान करेगा; लेकिन चौचक मेहरारुओं को खूब घूर-घूरकर ताकेगा। मालूम नहीं, सत्संग के बाद यह पाखंडी निचाट कोठरियों में घंटों-घंटों क्या करता रहता है--कभी मालती-सरीखी छोरियों के साथ तो कभी कमसिन लौंडों के साथ...

नन्हकू मंदिर के कामकाज से निपटकर मुंशी ईश्वरचंद्र की कोठी पर चला गया। जब बाबा बैकुंठनाथ सुबह किसी यजमान के यहाँ गए होते हैं तो वह मंदिर के गेट पर अपने किसी विश्वासपात्र को बैठाकर ईश्वरचंद्र के यहाँ जाकर ड्राइंगरूम में जम जाता है। मुंशी जी तो पाठशाला की हेडमास्टरी करने गए होते हैं जबकि उनकी धर्मपत्नी इस सुकून में बेडरूम में आराम फरमा रही होती हैं कि जब बाबा बैकुंठनाथ का ब्रह्मचारी चेला उनके यहाँ बैठा हुआ है तो उन्हें किस बात का डर है। न तो उनकी जवान बेटी के लिए कोई डर है, न ही किसी चोर-उचक्के के घर में घुसने का भय। ऐसे में नन्हकू उनके ड्राइंगरूम में टांग पसारकर टी वी पर कोई फिल्म या सास-बहू वाली सीरियल देखने में मशग़ूल हो जाता है।

पर, आज उसका मन बड़ा चंचल हो रहा है। दिमाग में बहुत-कुछ ऊट-पटांग चल रहा था। इसलिए, वह मुंशी जी की लड़की को आवाज़ देते हुए बाहर सड़क पर निकल आया, "सलोनी, हम वापस जा रहे हैं; गेट भॆंड़ देना।" लेकिन, वह मंदिर की ओर जाने के बजाय सदर बाजार की ओर निकल गया। वह इतनी तेजी से डेयरी, हलवाई, पान, कपड़े आदि की दुकानों पर निग़ाह डाले बग़ैर लगभग भागते और लोगों की पैलगी अनसुनी करते हुए आगे बढ़ता जा रहा था कि जैसे वह किसी ख़ास स्थान पर कुछ ख़ास लोगों से मुलाक़ात करने जा रहा हो। आख़िरकार, उसने नीम के पेड़ के नीचे वाली गुमटी पर रुककर ही दम लिया। दुकानदार ने हकबकाहट में हाथ जोड़कर कहा, "पाँय लागी बाबा जी! आज आपका दर्शन पाके हम कृतार्थ हो गए। बोलिए, किस पूजा-कर्मकांड के लिए कौन-सी सामग्री चाहिए?"

नन्हकू ने एक हाथ से अपनी जटाएं समेटते हुए, दूसरा हाथ आशीष देने के अंदाज़ में उसके सिर पर रख दिया, "श्यामलाल, पाँच किलो हवन-सामग्री, दो किलो देसी घी, बीस पैकेट कपूर, एक किलो धूप, पंद्रह पैकेट अगरबत्ती और सवा सेर बतासा फटाफट बाँधकर रखो; हम अभी आते हैं।" और इसके पहले कि नन्हकू श्यामलाल की भुनभुनाहट सुनता कि 'लगता है कि बाबाजी को रामघाट पर किसी का दाह-संस्कार कराना है या कि बड़े बाबा कोई बहुत बड़ा शांति-पाठ, यज्ञ-हवन कराने जा रहे हैं,' वह कोने वाले लोहार की दुकान में घुस गया और कोई चार फुट की लोहे की एक रॉड उठाते हुए बोल उठा, "कितना दे दें इसका, बर्मा जी!" लोहार हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा, "बाबा, धरम-करम के नाम पर आप कहें तो ऐसी सौ रॉड मंदिर में पहुँचा दें। बाबा, आप इसको इस भगत की एक तुच्छ भेंट मानकर ले जाएं और अपना काम करें। हम तो बस आपके आशीष के भूखे हैं।"

मंदिर में वापस आकर नन्हकू ने कुछ ख़ास काम को बड़े नियोजित ढंग से निपटाया। कोई आठ बजे तक मंदिर में दर्शनार्थियों का आना-जाना लगभग बंद हो चुका था। तब उसने फटाफट मेन गेट की बत्ती बुझा दी ताकि यह जाहिर हो सके कि मंदिर में पूजा-पाठ का काम लगभग बंद हो चुका है। अब उसे काफ़ी तसल्ली मिल रही थी। बैकुंठनाथ के जिस निजी कक्ष में किसी का भी प्रवेश निषिद्ध है, वह उसमें से कई बार आया-गया। फिर, जो सामान वह बाजार से लेकर आया था, उन्हें वह यथास्थान रखते हुए ठाकुर जी की मूर्ति के आगे बैठ गया और हाथ जोड़कर, आँखें मूंदकर काफी देर तक कुछ बुदबुदाकर याचना करता रहा।

सूरज अपना सिर शहर की कोठियों के पीछे दुबका चुका था। इसके साथ ही, चमगादड़ों के झुंड दीवारों से टकराने लगे थे। जब झींगरों का शोरगुल बेतहाशा बढ़ने लगा तो उसने परिक्रमा वाली गली में जाकर कोई दस मिनट तक दंड-बैठक पेला; फिर, बाहर आकर अपने बाजुओं पर तेल मालिश की। उसके बाद, वह कुछ देर तक बगीचे में मन को तरोताज़ा करने के लिए चला गया। वहाँ से वापस आया तो मंदिर के मंडप में बैठ गया। आलमारी में रखी गीता, रामायण और भजन-पुस्तिकाओं को निकालकर वेदी के आगे रखी चौकी पर करीने से सजाया। फिर, हारमोनियम बजाकर बिंदु महराज द्वारा रचित भजन सस्वर गाने लगा, "रे मन, प्रति श्वांस पुकार यही, श्री राम हरे, घनश्याम हरे...।" इस भजन को गाने पर उसका रियाज़ अच्छा था; इसलिए, वह पाँच मिनट में गाया जाने वाला यह भजन आधे घंटे तक बार-बार गाता रहा। उसे लग रहा था कि इस भजन को देर तक गाकर वह अपनी मनोकामना पूरी कर सकता है। इसलिए, गाते हुए उसने आँखें बंद कर रखी थी। इस बीच बैकुंठनाथ के वापस आने पर भी वह गायन में बेसुध खोया रहा। जब उन्होंने उसके सिर पर हाथ फेरा, तब जाकर उसकी सुध वापस आई।

नन्हकू झट भजन बंदकर बैकुंठनाथ की बार-बार पैलगी करने लगा।

बैकुंठनाथ गदगद हो उठे। नन्हकू ने ऐसा शिष्टाचार पहले नहीं दिखाया था। "शिष्य, तुम्हें गुरुमंत्र देना और कंठी-माला पहनाना बिरथा नहीं गया। तुम हमारे एकमात्र सच्चे चेला हो। जानते हो? एक सच्चे चेला का स्थान एक हजार पितृभक्त पुत्रों से भी ऊँचा होता है।"

नन्हकू हारमोनियम को एक किनारे रखकर उठ खड़ा हुआ, "गुरु-महराज, आप आज बड़े थक गए होंगे। सत्संग में लंबा-चौड़ा कथा-पुराण बाँचते-बाँचते आपकी नटई दुख रही होगी। बहुत सारे भगतों-भगतिनियों को कंठी-माला पहनाकर गुरुमंत्र देते हुए आप कितना निढाल हो गए होंगे, इसका अंदाज़ा सिर्फ़ हमें है। आप थोड़ा सुस्ता लें। चाहें तो हाथ-मुँह धोकर बगीचे में खुली साँस ले लें। तब तक हम आंगन में आपके अल्पाहार का बंदोबस्त करते हैं।"

बैकुंठनाथ विस्मय में डुबकी लगा रहे थे क्योंकि नन्हकू डाँट-फटकार सुने बग़ैर ही बड़े विनय के साथ उनके सेवा-सत्कार में लगा हुआ था।

नन्हकू काम पर काम निपटाते हुए लगातार उन्हें गंभीर मुद्रा में बताता जा रहा था--"हमने आज दिन-भर भगतों की अगुवाई की। दुःखीजनों का दुःख-दर्द सुना। बहुतों का झाड़-फूँक किया। हाँ, मालती, कुमकुम और सुशीला में से कोई भगतिन नहीं आई। अगर आतीं तो हम कह देते कि अभी बड़े महराज देर से आएंगे; इसलिए, आप भी आज नहीं, कल आना; आप उनका दर्शन कल ही कर पाएंगी। हम मुंशी जी के यहाँ भी नहीं गए। उनकी बिटिया सलोनी आई थी तो हमने कह दिया कि आज गुरु-महराज आपको अपनी राम-कोठरिया में संगीत का रियाज़ नहीं करा पाएंगे क्योंकि वह सत्संग में गए हुए हैं...।"

बैकुंठनाथ के कानों में उसकी बातें शहद घोल रही थीं। वह मंत्रमुग्ध होकर उसकी बातें सुनते हुए आँगन में फल-फूल जीमने में खोए हुए थे कि तभी नन्हकू को सामने लोहे की रॉड अपने ऊपर ताने हुए देखकर भय के मारे चींख उठे, "अरे, नन्हकुआ, तूं पगला गया है क्या? ई कौन-सा खेल खेल रहा है तूं? अभी तो मिन्ट-भर पहले हमारी बड़ी खुशामद बतिया रहा था।"

इसके आगे बैकुंठनाथ एक शब्द भी नहीं बोल पाए क्योंकि अपने बचाव की युक्ति करने से पहले ही, उनके सिर पर नन्हकू की रॉड के धुआँधार प्रहार से उनका शरीर निर्जीव होकर जमीन पर लुढ़क चुका था। उसने ठठाते हुए लाश के सिर को जोर-जोर से झँकझोरा, "पता है--घटानन्द के चेला बैकुंठनाथ? आज हम बड़ा मौज किए। तुम्हारे ध्यानकक्ष में रखे सारे तिल के लड्डू खाए। संदूक तोड़कर सारी शक्तिवर्धक दवाइयाँ खाईं। वहाँ रखा केवड़ा-जल अपनी देह पर मला। सचमुच बड़ा मजा आया। सबसे ज़्यादा मजा तब आया जब आज मालती नहीं, कुमकुम आई थी। हमने उससे कहा--कुम्मी, हम तुम्हारी सारी व्याधियाँ दूर कर देंगे। और फिर, उसके साथ वही सारे कर्मकांड किए जो तुम उसके साथ करते रहे हो। सचमुच मठ के मेठ बाबा के रूप में मौज करने का रहस्य आज हमें पता चला है। तभी हमने तय कर लिया कि तुम्हारा स्थान हम ले के रहेंगे।"

अगली सुबह, मंदिर में कुहराम मचा हुआ था। मठ में बाबा बैकुंठनाथ के जलकर भस्मीभूत होने की घटना से बड़ा तूफ़ान उठा हुआ था। शहर के इतने प्राचीन मंदिर में ऐसी भयावह दुर्घटना के घटित होने से लोगबाग बेहद दुःखी थे। मंदिर के प्रांगण में ठसाठस भीड़ थी। श्रद्धालुओं की जुबान से बाबा बैकुंठनाथ के महान व्यक्तित्व और सत्कार्यों का प्रशस्तिगान हो रहा था और उनकी आँखें गंगा-जमुना हो रही थीं। नन्हकू गलाफाड़-फाड़कर रो रहा था। लगभग पागल-सी हरकतें कर रहा था। चिल्लाता जा रहा था--गुरु- महराज से हम रोज कहते थे कि गुरुदेव, अपने ध्यानकक्ष में धूप-दसांग जलाकर रात-रातभर कर्मकांड मत किया कीजिए। कहीं कोई चिनगारी आपके बिस्तर में लग गई तो कोई बड़ा अनिष्ट हो जाएगा। आखिर, हुआ वही जिससे हम डरते थे। हम तो बगीचे में बेखबर खर्राटा भर रहे थे। सुबह उन्हें जगाने उठे तो नज़ारा देखकर हम मुर्छा खा गए। राख के बीच उनकी कुछ हड्डियाँ ही बची थीं। बाकी उनका नश्वर शरीर जलकर राख हो गया था। अरे, ये भी उनकी कोई बड़ी साधना है क्या? हमें तो लगता है कि गुरु-महराज हमसे कोई लुकाछिपी खेल रहे हैं और अभी राख में से प्रकट होकर हमसे कहेंगे कि अरे बाबा नन्हेदास! इस नश्वर शरीर में क्या धरा है? इससे इतना मोह काहे करते हो? हम तो सदैव तुम्हारे पास हैं। जब भी जहाँ हमें पुकारोगे, तुम हमें वहाँ अपने पास पाओगे।"

स घटना के बाद कुछ हफ़्ते तक मंदिर में मरघट जैसी मनहूसियत छाई रही। जो भी श्रद्धालु आता, वह पूजा-अर्चना के बाद नन्हकू को ढाँढस ज़रूर बँधाता। मुंशी ईश्वरचंद के भी दुःख का कोई पारावार नहीं रहा--उनके मित्र रह चुके बाबा बैकुंठनाथ की अकाल मृत्यु ने उनसे जो उनका मार्गदर्शक छीन लिया था। उनकी हार्दिक इच्छा है कि बैकुंठनाथ का प्रिय चेला नन्हकू ही मंदिर का मठाधीश बने। बहरहाल, इधर बाबा घटानन्द से संबंधित घटनाओं ने अलग मोड़ ले लिया है। खुफ़िया जाँच से यह साबित नहीं हो सका कि उनके ख़िलाफ़ लगाए गए सारे आरोप सही हैं। इसलिए कोर्ट ने उन्हें सभी मुकदमों और आरोपों से बाइज़्ज़त बरी कर दिया। इस बात से ईश्वरचन्द ख़ास उत्साहित हैं और उन्होंने नन्हकू को मठाधीश के रूप में नियुक्त किए जाने के लिए नगर के मेयर से सिफ़ारिश की है। इस प्रयोजनार्थ, बाबा घटानन्द को भी आमंत्रित किया गया है जो नन्हकू का मठाधीश के रूप में अभिषेक करेंगे।

 

मंदिर में बैकुंठनाथ के जिस ध्यान-कक्ष से उनका भस्मीभूत शरीर बरामद किया गया था, वहाँ उनका समाधि-स्थल स्थापित किया जा चुका है। बाबा घटानन्द ने स्वयं अपने प्रिय शिष्य बैकुंठनाथ की प्रतिमा का अनावरण किया। फिर, नन्हकू को बाबा नन्हेदास के नाम से वहाँ का मठाधीश नियुक्त किया। श्रद्धालुओं और सुरक्षाकर्मियों की मौज़ूदगी में मीडिया की हस्ती चौरसिया अपनी टीम के साथ इस आयोजन का ज़ायज़ा लेते हुए कैमरे के सामने अपनी बेबाक टिप्पणी दे रहे हैं--"संतों की इस पवित्र नगरी में आज बाबा घटानन्द जनता को दैहिक-दैविक-भौतिक तापों से निज़ात दिलाने के लिए पधारे हुए है। ये वही घटानन्द हैं जो कुछ समय पहले अपने चंद विरोधियों के षड़्यंत्र के शिकार हुए थे। लेकिन, जाँच एजेंसियों ने इन पर लगाए गए सारे आरोपों को झूठा और निराधार पाया। आज कोर्ट में घटानन्द के विरुद्ध साज़िश करने वालों पर मानहानि का मुकदमा चल रहा है। सच, सूरज काले बादलों से निकल कर अपनी चौंधियाती रोशनी से फिर अंधेरे का शमन कर रहा है। मैं ऐसे ज्योतिपुंज महिमामय बाबा घटानन्द को प्रणाम करता हूँ। आज दिव्यात्मा घटानन्द ने बाबा नन्हेदास को यहाँ का मठाधीश नियुक्त किया है। हाँ ये बाबा नन्हेदास वही हैं जिनके गुरू बाबा बैकुंठनाथ ने यहाँ जनोद्धार की कामना लिए अग्निवेदी में स्वयं की जीवित आहुति दे दी थी।"                      (समाप्त)

 

न्यूज़ सोर्स : साहित्य डेस्क