सत्यवान "सौरभ" के दोहे
मन रहता व्याकुल सदा, पाने माँ का प्यार ।
लिखी मात की पातियाँ, बाँचू बार हज़ार ।।
अंतर्मन गोकुल हुआ, जाना जिसने प्यार ।
इस अमृत के पान से, रहते नहीं विकार ।।
बना दिखावा प्यार अब, लेती हवस उफान ।
राधा के तन पर लगा, है मोहन का ध्यान ।।
दोस्त बने सब काम के, करे काम से प्यार ।
बैठ सुदामा सोचता, मिले कहाँ वो यार ।।
आपस में जब प्यार हो, फले खूब व्यवहार ।
रिश्तों के संसार में, पड़ती नहीं दरार ।।
जहाँ महकता प्यार हो, धन न बने दीवार ।
वहां कभी होती नहीं, आपस में तकरार ।।
प्यार वासनामय हुआ, टूट गए अनुबंध ।
बिखरे-बिखरे से लगे, अब मीरा के छंद ।।
दुखी-गरीबों को सदा, जो बांटे हैं प्यार ।
सपने उसके सब सदा, होते हैं साकार ।।
खत वो पहले प्यार का, देखूं जितनी बार ।
महका-महका सा लगे, यादों का गुलजार ।।
जब तुमने यूं प्यार से, देखा मेरे मीत ।
थिरकन पांवों में उठी, होंठों पर संगीत ।।
दोहे, गजलें, गीत सब, मन से निकले छंद ।
भरा सभी में एक-सा, भावों का मकरंद ।।
अब ऐसे होने लगा, रिश्तों का विस्तार ।
जिससे जितना फायदा, उससे उतना प्यार ।।
उनका क्या विश्वास अब, उनसे क्या हो बात ।
‘सौरभ’ अपने खून से, कर बैठे जो घात ।।
गलती है ये खून की, या संस्कारी भूल ।
अपने काँटों से लगे, और पराये फूल ।।
राय गैर की ले रखे, जो अपनों से बैर ।
अपने हाथों काटते, खुद वो अपने पैर ।।
अपने अब अपने कहाँ, बन बैठे गद्दार ।
मौका ढूंढें कर रहे, छुप-छुपकर वो वार ।।
अपने अपनों से करें, दुश्मन-सा व्यवहार ।
पहले आंगन में उठी, अब छत पे दीवार ।।
कहाँ प्रेम की डोर अब, कहाँ मिलन का सार ।
परिजन ही दुश्मन हुए, छुप-छुप करे प्रहार ।।
भाई-भाई से करे, भीतर-भीतर जंग ।
अपने बैरी हो गए, बैठे गैरों संग ।।
टूट रहा विश्वास अब, करते अपने घात ।
मन की मन में राखिये, ‘सौरभ’अपनी बात ।।
दोहाकार के बारे में
रिसर्च स्कॉलर, कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
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