पुस्तक : बेबसी तथा अन्य कहानियाँ 

संपादक : सुरेंद्र कुमार अरोड़ा (९९१११२७२७७) 

प्रकाशक : राज पब्लिशिंग हॉउस 

प्रकाशन वर्ष : २०२२ (प्रथम संस्करण)

प्रकाशक का पता : ९/५/२३, पुराना सीलमपुर 

(पूर्वी) दिल्ली-११००३१ (मोबा-९१३६१८४२४६)

समीक्षक : डॉ. मनोज मोक्षेंद्र (९९१०३६०२४९)

प्रख्यात लघुकथाकार सुरेंद्र कुमार अरोड़ा का मानना है कि लेखक को लिखते समय इस बात पर अवश्य ध्यान देना चाहिए कि वह किसके लिए लिख रहा है -- साहित्यकारों के लिए या सामान्य पाठकों के लिए अथवा क्या वह लिखते हुए अपनी संवेदना के बिंदु तक पहुँचना चाहता है...

लेखक का सीधा अभिप्राय यह है कि लेखक पाठकों के लिए लिखते हुए स्वयं की संवेदना-बिंदु तक पहुँचना चाहता है। नि:संदेह, उसके लिखे हुए में वह जिन संवेदनाओं का अनुभव स्वयं में करता है, वही संवेदनाएं पाठक में पैदा हों तो उसे अपने लेखकीय श्रम की सफलता से संतुष्टि होती है। लेखक के रूप में सुरेंद्र कुमार अरोड़ा कितने गंभीर हो  सकते हैं, वह उनके इस दृष्टिकोण से स्वत: परिलक्षित होता है। अस्तु, जितनी गंभीरता से वह अपने खुद के सृजन पर बकुल-ध्यान लगाए रहते हैं, उतनी ही संज़ीदगी से वह अन्य लेखकों को पढ़ते हुए उनमें संवेदना के परिमाण का अंदाज़ा भी लगाते हैं। सुरेंद्र की अन्य लेखकों के लिखे हुए में दिलचस्पी उन्हें उनकी खामियों और खूबियों को परखने का मौका देती है। इसलिए, वह सोचते हैं कि उनकी इस परख-क्षमता को पाठकीय स्तर पर सराहा जाए। तब वह अन्य लेखकों के लिखे हुए को बड़े मनोयोग से संशोधित-संसाधित करने में जुट जाते हैं और जब उनके पास श्रमशील लेखकों की कुछ रचनाएं इकट्ठी हो जाती हैं तो वह उन रचनाओं को लेकर प्रकाशक के पास चले जाते हैं। 

बेशक, सुरेंद्र एक मंझे हुए संपादक हैं और उन्होंने स्वयं के संपादन में एक नहीं, अनेक पुस्तकों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। उन्होंने कहानियों पर विशेष निग़ाह डाली है--चाहे वे लघुकथाएँ हों या सामान्य कहानियां। लघुकथाओं के तो वे दक्ष शिल्पकार रहे हैं और एक नहीं, अनगिनत लघुकथाएं लिखी हैं जिन्हें बड़ी संख्या में पाठकों द्वारा प्रशंसा भी मिली है। 

जहां तक विदित है, उन्होंने अपनी पहली सम्पादित पुस्तक कहानियों के रूप में प्रस्तुत की थी जिसका शीर्षक था--"अपूर्णा तथा अन्य कहानियां"। तदनन्तर, उन्होंने अनेक लघुकथाओं को संपादित करके कोई तीन पुस्तकें भी हम पाठकों को चाव से पढ़ने के लिए दी हैं। स्वयं की छह लघुकथा संग्रहों और दो कहानी संग्रहों से हिंदी साहित्य को समृद्ध करने वाले सुरेंद्र की कथा-लेखन में सिद्धहस्तता का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है। तभी तो उनके सद्य:प्रकाशित कहानी संग्रह "बेबसी तथा अन्य कहानियां" को समीक्षित करने की मुझमें जिज्ञासा पैदा हुई है। यह उनकी संपादित पुस्तक है जिसमें कुल बीस कहानियां हैं और प्रत्येक कहानी सामाजिक विद्रूपताओं की नंगाझोरी करने में अलग-अलग तेवर में अनूठे कथानक के साथ प्रस्तुत है।

इन कहानियों की सोद्देश्यता के संबंध में स्वयं सुरेंद्र का कहना है: "इनमें कहीं प्रेम की कोमलता और सरसता है, तो कहीं बदलते प्रवेश में टूटते रिश्तों की पड़ताल है। कहीं मज़हबी कट्टरता का घाव है तो कहीं भ्रष्टाचार की चक्की में पिसते समाज के आखिरी व्यक्ति की टूटन की प्रतिध्वनि है। वर्षों से पलते हुए अंधविश्वासों के माध्यम से दुराचारियों द्वारा भोले-भाले लोगों के शोषण को बेनकाब करती जागरूकता है तो कहीं पारिवारिक क्लेशों की तपिश में सुलगते परिवारों की तड़प भी है।"

सुरेंद्र द्वारा अन्य संपादित कहानी संग्रहों, जिनमें उन्होंने नामचीन लेखकों को स्थान दिया है, के बजाय इस संग्रह में उन्होंने कहानियों के कथानक और उद्देश्य पर विशेष ध्यान दिया है। बरखा राजेश शर्मा की कहानी 'बुढ़ापा' एक पारिवारिक कहानी है और कथाकार ने परिवार में उपेक्षित बुजुर्गों की दशा को जग-ज़ाहिर किया है जो मन को द्रवित कर जाता है। संग्रह की दूसरी कहानी 'झिलमिलाते रंग' में कहानीकार चंद्र बल्लभ नौटियाल ने पारिवारिक कलह को एक छोटे लेकिन प्रासंगिक सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है किन्तु पति-पत्नी के बीच बड़े नाटकीय ढंग से सामंजस्य स्थापित हो जाता है। अगली कहानी "बड़े साहब" भी नौटियाल जी की  है जिसमें कहानीकार ऑफिस कल्चर को आरेखित करता है; छोटे कर्मचारियों तथा अधिकारियों के बड़े होते कद के बीच कभी न भरी जाने वाली खाई को बड़े मार्मिक ढंग से उकेरा गया है। 

संग्रह में रोमांस, प्रेम और त्रासदी को बिंबित करने वाली कहानी 'वो अब भी है दिल में' में कहानीकार गीता चौबे ने प्रेम की त्रासद स्थिति से उबरने के लिए जीवन का एक नया ढंग अपनाने का फैसला किया है जो नाटकीय तो है ही, साथ में युवाओं के लिए एक आदर्श स्थापित कर जाता है। मंजुला शर्मा नौटियाल की दोनों कहानियां 'सुख का आधार' और 'नतमस्तक' हैं तो लघुकथा के आकार की, किन्तु इनमें दाम्पत्य जीवन में सामंजस्य के साथ-साथ समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है। 

 

सुरेंद्र ने इस संग्रह में जिन कहानियों को संकलित किया है, उनमें जीवन के विभिन्न पक्षों को उनके विभिन्न रंगों में पेश किया गया है। मंजुला शर्मा नौटियाल की कहानी 'ख़ुशी का माहौल' जीवन के उल्लासमय क्षणों को उत्सवित करती है जबकि डॉ. रेनू सिंह की कहानी 'गरल की एक बूँद भर' पुरुष की कुवृत्तियों से ठगी गई स्त्री की रुदन से आप्लावित है। कथाकार डॉ. रेनू का कथा-शिल्प उनकी अगली कहानी 'परछाई' में निखरकर आया है जिसमें उन्होंने पात्रों के संवाद और अपनी भाषा-शैली पर विशेष ध्यान दिया है और कथानक का विस्तार संवादों के आधार पर ही किया है। 

 

इस संग्रह की कुछ कहानियों की भाषा-शैली पर्याप्त रूप से परिपक्व है जहाँ लोक शब्दावलियों के माध्यम से पूरी कहानी को दिलचस्प बना दिया गया है और कथानक के विस्तार के लिए छोटी-छोटी घटनाओं को जोड़कर कहानी को आगे बढ़ाया जाता है। विनय विक्रम सिंह की कहानी 'चाय का कुल्हड़' ऐसी ही कहानी है जो पाठक का ध्यान देखते ही खींच लेती है। रशीद गौरी की कहानी 'नीला आकाश' सधे हाथों से लिखी गई है जिसमें सामाजिक विद्रूपताओं का मखौल उड़ाते हुए ढकोसलों और पाखंडों को नंगा किया गया है। फिर, रशीद गौरी ने अपनी अगली कहानी 'स्मृतियों की आँच' में एक निरीह और असहाय वृद्ध व्यक्ति का मार्मिक रेखाचित्र प्रस्तुत किया है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सुरेंद्र ने पाठकीय दिलचस्पी को बनाए रखने के लिए इस संग्रह में कम से कम दस लघु कहानियां रखी हैं जिन्हें कला पक्ष और भाव पक्ष के आधार पर बेशक लघुकथा नहीं कहा जा सकता। 

 

संग्रह में रविंद्र कांत त्यागी की कहानी 'लंपट' प्रथम दृष्टया पाठकों का ध्यान खींचती है। इस लम्बी और दिलचस्प कहानी में कहानीकार ग्रामीण परिवेश में सामाजिक विडंबनाओं, झाड़-फूँक और जादू-टोना से संबंधित अंधविश्वासों, धर्म के रास्ते  प्रेत-बाधा का निवारण करने जैसे छल-प्रपंच आदि पर जोरदार कुठाराघात करता है। संपादक सुरेंद्र ने संग्रह के अंतिम पृष्ठों में इसी प्रकार के जटिल कथानकों वाली कहानियों को स्थान देकर इस पुस्तक की सार्थकता में चार चाँद लगा दिए हैं। 'मज़हब से धर्म में' कहानी में धर्मान्तरण और जिहाद के विश्वजनीन सन्दर्भों को सार्वजनिक करने के कथाकार मोक्षेन्द्र के प्रयास को रेखांकित किया जाना चाहिए क्योंकि इस्लाम के ग़ज़वाए-हिन्द के सदियों से चल रहे दुस्साहस को इस कहानी में बड़ी शिद्दत से वर्णित किया गया है। 

 

संग्रह की अगली कहानी आधी दुनिया अर्थात स्त्रियों की दुर्दशा को चित्रित करती है। इसमें कथातत्व पर विशेष ध्यान दिया गया है। नशेड़ी पिता द्वारा पत्नी और बेटी की उपेक्षा, पत्नी की निर्मम हत्या तथा अबोध बालिका को उसकी मौसी द्वारा 'मास्टरनी' के रूप में नया अवतार दिया जाना--इस कहानी को मार्मिक बनाता है। कथाकार संदीपन की यह कहानी जिसका शीर्षक 'मास्टरनी' है, पठनीय है। सेवा सदन 'प्रसाद' की कहानी 'बेगुनाह' एक मुस्लिम परिवार में एक भले लड़के की कहानी है जो अपने अब्बा की आर्थिक तंगहाली में मदद करने के लिए किसी सेठ की नौकरी  करते हुए अनजाने ही एक मुसीबत में फंस जाता है और अपनी जान गँवा बैठता है। कहानी सच्चाई और ईमानदारी का मिसाल पेश करती है। 'प्रसाद' की अगली कहानी 'उसके बिन' एक मार्मिक प्रेम कहानी है जिसमें पुरुष अपने प्रेम को जगजाहिर नहीं करता है और अपनी प्रेमिका से अंतिम मुलाकात में बस, उसकी बेटी को एक 'गिफ्ट' सौंपकर हमेशा के लिए दूर चला जाता है। अगली कहानी 'कोरोना काल का मसीहा' में 'प्रसाद' कोरोना की विभीषिकाओं से परिचित कराते हुए लोगों की असहिष्णुता को बिंबित करते हैं। 

 

'बेबसी' स्वयं संपादक-लेखक सुरेंद्र कुमार अरोड़ा की ही कहानी है जिसमें वह रोमानी ऊष्मा का प्रयोग करते हुए प्रेम को विभिन्न कोणों से मूल्यांकित करते हैं और जीवन में इसकी आवश्यकता पर बल देते हैं तथा कहते हैं कि 'प्यार हम सभी का सबसे ऊर्जावान संवेग है' जिससे यह स्वत: परिलक्षित होता है कि सुरेंद्र ने प्रेम को कितने ऊँचे सिहासन पर आसीन किया है। कहानी के एक स्त्री पात्र का दावा है, 'अगर वो (पुरुष पात्र) सचमुच मुझसे प्यार करते होंगे तो मेरे इस रूप में भी मुझे स्वीकार करेंगे।  मैं भी तो उन्हें उनकी हर कमी के साथ अपनाती हूँ।' अर्थात प्रेम में अडिग विश्वास का संपुट ही प्रेम को सम्पूर्ण बनता है। कहानी आद्योपांत तर्कपूर्ण वार्तालाप से सज्जित है और भाषा भी बेहद प्रभावी है। इस कहानी में सुरेंद्र बिलकुल अलग नज़र आते हैं। 

 

संग्रह की आखिरी कहानी 'प्लेटोनिक लव' शीर्षक से तो कोई दार्शनिक कहानी लगती है। आरंभ वसुधा और राहुल के मध्य ऑनलाइन चैटिंग से होता है। कहानी सचमुच एक प्रेम-कहानी है जिसे कथाकार सुरेंद्र नाथ गुप्त 'सीकर' ने दो पात्रों के बीच वार्तालाप तथा अपने लेखकीय कथ्य से दिलचस्प बनाने की कोशिश है। सोशल मिडिया पर दोनों संपर्क में आकर अंतरंग हो जाते हैं। भावनाओं की उफान में वे कहानी के समापन तक तर्क का ही सहारा लेते हैं जबकि प्रेम भावनाओं में बहने का नाम है। कहानीकार का उद्देश्य भौतिक के बजाय आत्मिक प्रेम को महिमामंडित करना है जिसके बारे में कोई अंतिम निर्णय पाठक ही ले सकते हैं। 

 

इन सभी कहानियों के चयन में सुरेंद्र अरोड़ा ने कहानियों के उद्देश्य पर विशेष ध्यान दिया है तथा उन्होंने इस बात पर बल दिया है कि मनुष्य के ह्रदय-परिवर्तन के लिए उसमें भावनात्मक उद्वेग का उमड़ना ज़रूरी है। अब चाहे वह प्रेम का उद्वेग हो या घृणा का, सुरेंद्र ने दोनों को प्रवाहित किया है ताकि समाज में सकारात्मक बदलाव लाया जा सके।  जिन कहानियों में सीधे-सीधे किसी संप्रदाय विशेष को आड़े हाथों लिया गया है, उनसे बेशक राष्ट्रीय समाज ही नहीं, वैश्विक समाज भी प्रभावित हुआ है तथा ऐसे संप्रदाय या विचारधारा के खिलाफ व्यापक रूप से विरोध-प्रतिरोध किया गया है। भारत ही नहीं सारा विश्व, भौतिक-अभौतिक विविधताओं से भरा-पड़ा है तथा पूरे वैश्विक समाज को इन विविधताओं के साथ जीना है। बेशक, सुरेंद्र चाहे अपने लिखे हुए में अथवा अन्यों के लिखे हुए में, बस यही अभीप्सा रखते हैं कि सहिष्णुता और मानवीय सम-भाव के साथ इस धरती को रहने लायक बनाया जा सके। 

 

मेरी इच्छा ही नहीं है, बल्कि विश्वास है कि सुरेंद्र अरोड़ा के संपादन में नव-प्रकाशित कहानियों का यह संग्रह बड़े स्तर पर पढ़ा जाएगा और इसे हर वर्ग के पाठकीय स्तर पर पूरी स्वीकार्यता मिलेगी। 

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न्यूज़ सोर्स : wewitness literary desk